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के वैद्य बुलाए। वैद्यों ने प्रभूत उपचार किए पर सब व्यर्थ सिद्ध हुए। राजकुमार का रोग बढ़ता ही गया। राजा शोक-मग्न रहकर समय बिताने लगा।
एक बार आचार्य विनयसेन पद्मपुर के राजोद्यान में पधारे। राजा को बहुत प्रसन्नता हुई। वे रानी और राजकुमार के साथ आचार्य श्री के दर्शनार्थ गए। नगर का आबालवृद्ध उद्यान में उमड़ पड़ा। आचार्य चार ज्ञान के धारक थे। राजा ने आचार्य श्री से अपने पुत्र वरदत्त के बारे में पूछा, भगवन्! मेरे पुत्र ने ऐसे कौन से दुःसह कर्म किए हैं जिनके कारण यह जड़बुद्धि तो रहा ही, साथ ही कुष्ठरोगी भी हो गया ? और वे कौन से उपाय हैं जिनसे इसकी बुद्धि की जड़ता और कुष्ठ रोग दूर हों?
आचार्य श्री ने फरमाया, प्रत्येक व्यक्ति कर्मों से बंधा हुआ है। वैसे ही वरदत्त भी कर्मों के दुःसह बंधन में है। पिछले जन्म में वरदत्त ने घोर ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध किया। मन, वचन व शरीर से ज्ञान और ज्ञानोपकरणों की इसने आशातना की, जिसके फलस्वरूप उसे बुद्धि का जड़त्व और कुष्ठरोग प्राप्त हुआ है। पूर्वजन्म में वरदत्त वसुदेव नामक श्रेष्ठी पुत्र था। यौवन में ही वह मुनि बन गया। ज्ञानाभ्यास से वह शीघ्र ही संघ का अद्वितीय विद्वान मुनि बन गया। उसे आचार्य पद प्राप्त हुआ। वह विद्वान था, फलतः उस पर संघ संचालन के अतिरिक्त कई अन्य दायित्व भी थे। शिष्यों को पढ़ाना, संतों, श्रावकों का शंका-समाधान करना, वादियों से शास्त्रार्थ करना, आदि-आदि। इससे वसुदेव आचार्य इस कद्र व्यस्त और श्रमशील रहते कि उन्हें विश्राम का समय ही नहीं मिल पाता । इससे उनके मन में ज्ञान के प्रति वितृष्णा उत्पन्न हो गई। वे सोचने लगे कि मैंने व्यर्थ ही ज्ञानार्जन किया, उसी का यह फल है कि मुझे एक पल को चैन नहीं है। यदि मैं ज्ञानार्जन नहीं करता तो अन्य मुनियों की तरह शान्त-सुखी रहता। इस विचार के साथ वसुदेव ने प्रतिज्ञा कर ली कि वे अब कभी वाचना नहीं देंगे, किसी का शंका-समाधान नहीं करेंगे और वादियों से शास्त्रार्थ नहीं करेंगे। साथ ही उन्होंने ज्ञान के उपकरणों -पुस्तकादि को फाड़कर फैंक दिया। वे अधिक से अधिक शारीरिक साता को तलाशते। उसी ढंग से आयुष्य पूर्ण कर वे तिर्यंच गति में गए। वहां से तुम्हारे पुत्र के रूप में वसुदेव ने जन्म पाया है। ज्ञान की घोर आशातना के कारण ही वरदत्त जड़ बुद्धि और कुष्ठरोगी हुआ है।
साथ ही आचार्य श्री ने ज्ञानावरणीय कर्म छेदन की एक सुव्यवस्थित विधि का निरूपण किया। यह साधना कार्तिक शुक्ल पंचमी से प्रारंभ की जाती है और पांच वर्षों में पूर्ण होती है। __ वरदत्त ने उस विधि की आराधना की। पांच वर्ष की साधना पूर्ण होते-होते वरदत्त के ज्ञानावरणीय कर्म शान्त हो गए। उसका कुष्ठ रोग भी दूर हो गया। तदनन्तर अल्प अभ्यास से ही वरदत्त समस्त कलाओं में पारंगत हो गया। एक हजार राजपुत्रियों से उसका पाणिग्रहण हुआ। महाराज अजितसेन वरदत्त का राजतिलक करके प्रव्रजित हो गए। वरदत्त ने सुदीर्घ काल तक सुशासन किया और राजसी सुखों का उपभोग किया। जीवन के उत्तरार्ध भाग में उसने दीक्षा धारण कर उच्च भावों से संयम की आराधना की। आयुष्य पूर्ण कर वह अनुत्तर विमान में देव बना। वहां से च्यव कर मुनष्य भव धारण कर निर्वाण प्राप्त करेगा।
-ज्ञान पंचमी कथा (ख) वरदत्त (कुमार)
साकेत नामक नगर में राजा मित्रनन्दी राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम श्रीकान्ता और पुत्र का नाम वरदत्त कुमार था। वरदत्त कुमार युवराज था। वह अतिशय रूप और गुणों का स्वामी था। वरसेना प्रमुख पांच सौ राजकुमारियों के साथ उसने पाणिग्रहण किया था। ... जैन चरित्र कोश..
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