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श्रावक धर्म अंगीकार किया। उसकी पत्नी ने भी श्रावक धर्म की दीक्षा ग्रहण की।
लेतिकापिता ने अविचल श्रद्धा भाव से श्रावक धर्म का पालन किया। यथासमय उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र को गृहदायित्व प्रदान कर अपना अधिकांश समय धर्मध्यान में अर्पित करना शुरू कर दिया। उसने क्रम से श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं की आराधना की। उक्त कठिन तप से लेतिकापिता की देह अत्यन्त कृश हो गई। तब उसने संलेखना संथारा द्वारा अंतिम साधना में प्रवेश किया। मासिक अनशन के साथ देहोत्सर्ग करके लेतिकापिता सौधर्म कल्प में देव बना। कालान्तर में वह महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध होगा।
-उवासगदसाओ लेप गाथापति
राजगृह नगर के उपनगर नालन्दा में रहने वाला एक समृद्ध श्रावक। वह भगवार महावीर का अनन्य उपासक और निर्ग्रन्थ प्रवचन का दृढ़ श्रद्धालु था। वह अष्टमी, चतुर्दशी और पक्खी को नियमित पौषधोपवास की आराधना करता था। लोकाशाह
धर्म प्राण लोंकाशाह विक्रम सं. की 15वीं-16वीं सदी के धर्मवीर पुरुष थे। वि.सं. 15वीं सदी के उत्तरांश में उनका जन्म हुआ। अध्ययन पूर्ण कर वे व्यवसाय के क्षेत्र में प्रविष्ट हुए। पहले उन्होंने पैतृक व्यवसाय किया, बाद में अहमदाबाद में रहकर जवाहरात का व्यवसाय स्थापित किया। व्यापार में प्रामाणिकता और कुशलता के कारण वे राजमान्य जौहरी बने। बादशाह मोहम्मदशाह के प्रस्ताव पर उन्होंने कुछ वर्षों तक पाटण में राजस्व अधिकारी के पद पर अपनी सेवाएं भी दीं।
लोकाशाह बचपन से ही सत्य के उपासक थे। उनका जीवन जैन धर्म के संस्कारों से ओतप्रोत था। परिणामतः वे तत्युगीन यतियों के पास धर्मश्रवण करने के लिए नियमित रूप से जाते थे। लोंकाशाह की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि उनका लेखन बहुत सुन्दर था। उनके सुन्दर लेखन को देखकर यति जी ने उनको आगमों की जर्जरित प्रतियां पुनर्लेखन के लिए दीं। आगम सेवा के रूप में इस कार्य को लोंकाशाह ने अपना पुण्योदय माना। वे आगमों की प्रतिलिपि तैयार करने लगे। साथ ही उन्हें विशुद्ध रूप से जिनवाणी के अध्ययन का सुअवसर भी प्राप्त हुआ। आगमों के अध्ययन से उन्हें शुद्ध धर्म का स्वरूप ज्ञात हुआ। शुद्ध श्रमणाचार के साथ यतियों के आचार की तुलना करने पर लोंकाशाह दुखद विस्मय से भर गए। उन्हें इस बात का अतिशय कष्ट हुआ कि भगवान महावीर ने श्रमण के लिए जिस आचार-विचार का निरूपण किया है उसका यतिवर्ग में आंशिक तत्व भी दृष्टिगोचर नहीं होता है। इसी कष्टपूर्ण अनुभूति ने लोंकाशाह को धर्मक्रान्ति के लिए प्रेरित किया। उन्होंने बत्तीसों आगमों की दो-दो प्रतिलिपियां तैयार की। एक-एक प्रतिलिपि अपने पास रख ली। आगमों की उन्हीं शुद्ध प्रतिलिपियों के आधार पर ही लोंकाशाह ने शुद्ध धर्म का प्रचार प्रारंभ किया। उनके शुद्ध धर्म के प्रचार से शीघ्र ही बहुत से जैन श्रावक उनसे प्रभावित हुए। कुछ ही समय में लोंकाशाह की धर्मक्रांति एक आन्दोलन के रूप में उभरी। हजारों भव्य आत्माओं ने आडम्बर और परिग्रह के दलदल में धंसे यतिवर्ग के प्रभाव से मुक्त होकर आगमानुसार शुद्ध धर्म की आराधना-अर्चना प्रारंभ कर दी।
लगभग 1000 वर्षों से यतियों ने जिनधर्म को अपनी सुविधानुसार तोड़-मरोड़ कर विद्रूप बना दिया था। लोंकाशाह ने आजीवन संघर्ष कर जिनधर्म के मौलिक तत्वों -सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और ... 522 ..
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