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लीलापत सुनकर विचारशील बन गया। उसने पुनः यक्ष की आराधना शुरू कर दी । यक्ष प्रकट हुआ। लीलापत की प्रार्थना पर यक्ष ने उद्यान के जलकुण्डों को स्वर्णमय और बावड़ियों को रजतमय बना दिया । परिणामतः रामेश्वर हलवाई ने अपनी पुत्री का विवाह लीलापत से कर दिया । लीलापत का स्वप्निल काम्य पूर्ण हुआ। उसके हर्ष का ओर-छोर न था । पत्नी झणकारा को लेकर वह अपने नगर के लिए चला।
शुभ कर्म प्रकट हो गए और रात्रि में किसी दुष्ट योगी ने झणकारा का अपहरण कर लिया। कई मास तक पति-पत्नी का वियोग बना रहा। झणकारा बुद्धिमती थी। अपनी युक्ति से उसने योगी से अपने शील की रक्षा की। वह योगी के चंगुल से भागी तो पुनः एक योगी के चंगुल में फंस गई। अपने बुद्धिबल से उस योगी से स्वतंत्र हुई तो चार चोरों ने उसे घेर लिया। चोरों को भी उसने अपनी बुद्धि से परास्त किया और काशी नगरी में पहुंची। वहां पुरुषवेश में रहकर उसने अपने बुद्धिबल से एक राक्षस से नगर की जनता की रक्षा की और आधे राज्य के साथ-साथ राजकुमारी से पाणिग्रहण किया। कुल परम्परा की बात कहकर उसने राजकुमारी को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वे छह मास तक भाई-बहन बन कर रहेंगे । आखिर काशी में रहते हुए ही लीलापत और झणकारा का पुनर्मिलन हुआ । झणकारा के बुद्धिबल पर शील रक्षण की सभी ने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की ।
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दो पत्नियों के साथ लीलापत अयोध्या लौटा। परिजनों और पत्नी से मिलन हुआ । हर्ष का सागर उमड़ा। सुखपूर्वक जीवन यापन करते हुए जीवन के अंतिम पक्ष में लीलापत और झणकाराने संयम कर स्वर्गाधिकार पाया। वहां से च्यव कर दोनों मनुष्य जन्म लेकर सिद्ध होंगे।
(क) लीलावती
एक राजकुमारी जिसका पाणिग्रहण राजकुमार चन्द्रानन स्वामी (विहरमान तीर्थंकर) से हुआ था । (देखिए - चन्द्रानन-स्वामी)
(ख) लीलावती
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भयपुर पाटण नगर के सेठ धनदत्त की पुत्री, एक बुद्धिमती और पतिपरायणा नारी । उसका विवाह कौशाम्बी नगरी के श्रेष्ठी पुत्र श्रीराज से हुआ था । लीलावती के विवाह के कुछ ही दिन पश्चात् उसकी माता का देहान्त हो गया और उसके पिता प्रव्रजित हो गए। लीलावती अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। फलतः उसका पीहर शून्य हो गया। पति का घर ही उसका एकमात्र घर था ।
लीलावती की तीन जेठानियां थीं। चारों में परस्पर पूर्ण स्नेह भाव था । एक बार जब चारों कौमुदी महोत्सव से लौट रही थीं, तो मार्ग में एक वृक्ष के नीचे बैठकर अपने-अपने पीहर के बारे में बातें करने लगीं । लीलावती उस वार्ता में मौन साधे बैठी थी । जेठानियों ने उसे टोका तो वह बोली, मेरा पीहर तो शून्य ही है । मेरी माता का देहान्त हो गया और पिता मुनि बन गए हैं। एक मामा हैं, जिनका नाम जिनसेन है, उनको आज दिन तक मैंने देखा नहीं है, विदेश में रहकर व्यापार करते हैं, यही मेरे पीहर की कथा है।
लीलावती के इस कथन को रूगा नामक एक ठग ने सुन लिया। रूगा एक नामी ठग था। बड़े-बड़े लोगों को उसने ठगा था। सो एक दिन लीलावती का मामा जिनसेन बनकर श्रीराज के घर पहुंच गया। सभी सदस्यों को अपनी वार्ताओं से मोहित बनाकर लीलावती को अपने घर ले गया । रुगा के घर पहुंचते ही लीलावती समझ गई कि वह ठगी गई है। रूगा ने भी स्पष्ट कर दिया कि वह उसे अपनी पत्नी बनाने के लिए लाया है। लीलावती बहुत बुद्धिमती थी । उसने अपने बुद्धिबल से न केवल अपने शील की रक्षा की • जैन चरित्र कोश •••
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