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फिर दुख के बाद प्राप्त होने वाला सुख भी अत्यंत मधुर होता है । मेरी सम्मति तो यही है कि कष्ट को अभी मांग लीजिए ।
सेठ को लक्ष्मी की बात उचित लगी और रात्रि में उसने कुलदेवी से वर्तमान के लिए कष्ट मांग लिया । दूसरे ही दिन श्रेष्ठी परिवार पर दुर्दैव सवार हो गया । कारण- अकारण राजा ने सेठ की दुकानों का माल त कर लिया, गोदाम आग की भेंट चढ़ गए, जहाज समुद्र में डूब गए, देनदारों ने देनदारी से इन्कार कर दिया और मुनीम बेईमान बन गए। लक्ष्मी ने कुछ बहुमूल्य रत्न अपने अंतरंग वस्त्रों में छिपा लिए। सेठ ने परिवार को एकत्रित करके राय दी कि कष्ट के समय को देशान्तर में बिताना ही युक्ति-युक्त रहेगा। इस निश्चय के साथ सेठ अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधुओं के साथ रात्रि में देशान्तर के लिए रवाना हो गया। वे जो भी धन-संपत्ति अपने साथ लाए थे उसे मार्ग में चोरों ने चुरा लिया। कई दिनों की यात्रा के पश्चात् श्रेष्ठी परिवार रत्नपुर पहुंचा। लक्ष्मी ने श्वसुर और सास को एक-एक रत्न देकर कहा कि वे भोजन और आवास की व्यवस्था करें। सेठ-सेठानी रत्न बेचने के लिए नगर में गए । वे एक धूर्त श्रेष्ठी के जाल में फंस गए। श्रेष्ठी ने उनके रत्न ले लिए और उन्हें अपने घर के तलघर में बन्दी बना दिया। सास- श्वसुर नहीं लौटे तो लक्ष्मी ने एक रत्न अपने पति को देकर विदा किया । लीलाधर भी उसी धूर्त श्रेष्ठी के चंगुल में जा फंसा और रत्न गंवाकर तलघर में पटक दिया गया ।
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लक्ष्मी सहित तीनों पुत्रवधुएं अत्यधिक चिंतित हुईं। आखिर लक्ष्मी ने धैर्य धारण किया और दोनों बहनों को धैर्य देकर वह स्वयं पुरुष वेश धारण करके नगर में गई । संयोग से धूर्त श्रेष्ठी से उसका भी सामना हुआ। पर लक्ष्मी ने उसे फटकार कर भगा दिया और जौहरी बाजार में पहुंचकर उसने चौदह लाख स्वर्णमुद्राओं में एक रत्न बेच दिया। मध्य बाजार में उसने एक भवन खरीदा। उसने अपनी दोनों बहनों को भवन पर बुला लिया । लक्ष्मी ने दोनों से कहा, शील रक्षण के लिए उचित है कि हम तीनों ही पुरुषवेश में रहें। पर दोनों ने-रूपवती और लीलावती ने इसे अपने लिए अशक्य बताया और कहा कि तुम ही पुरुषवेश में रहो, हम तुम्हारी पत्नियां बनकर इस कष्ट के समय को पूरा कर लेंगी।
लक्ष्मी ने अपना नाम लक्ष्मण सिंह रख लिया । उसने अपने भवन के नीचे के खण्ड में वस्त्रों की दुकान खोल ली और ये तीनों प्राणी सुखपूर्वक जीवन यापन करने लगे । लक्ष्मण सिंह अपने पति और सास- श्वसुर की निरन्तर खोज करता रहा, पर उसे सफलता नहीं मिली । रत्नपुर नगर में रहते हुए लक्ष्मण सिंह के राजा से मधुर सम्बन्ध हो गए। राजा के विशेष आग्रह पर उसने दो लाख स्वर्णमुद्राओं की मासिक वृत्ति पर नगर रक्षा का दायित्व स्वीकार कर लिया। एक देवी से नगर संत्रस्त था । लक्ष्मण सिंह ने अपने शील और धैर्य के बल पर देवी को वश में कर लिया और नगरजनों को अभय बना दिया। राजा की प्रार्थना पर लक्ष्मण सिंह ने उसकी रानियों के लिए दिव्य वस्त्राभूषण देवी से प्राप्त कर राजा को दिए । लक्ष्मण सिंह के दिव्य बल पर राजा गद्गद था । पुनः पुनः अस्वीकार करने पर भी राजा ने आनी पुत्री कनकमाला का विवाह लक्ष्मण सिंह से कर दिया। लक्ष्मण सिंह ने षडमासिक ब्रह्मचर्य व्रत की बात कनकमाला से कहकर रहस्य की रक्षा की ।
लक्ष्मण सिंह ने वैवाहिक भोज दिया। उस अवसर पर भोज में आए उक्त धूर्त श्रेष्ठी को लक्ष्मण सिंह ने पहचान लिया। उसकी अंगूठी में जड़े रत्नों को देखकर उसका संशय विश्वास में रूपायित बन गया। राजदण्ड का भय दिखाकर लक्ष्मण सिंह ने धूर्त श्रेष्ठी से सत्य उगलवा लिया । सेठ, सेठानी और लीलाधर को इस विधि से मुक्ति मिली ।
कष्ट के बारह वर्ष व्यतीत हो चुके थे। लक्ष्मण सिंह ने राजा से अपने देश जाने की आज्ञा मांगी। राजा ••• जैन चरित्र कोश
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