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फिर तुम्हें अपने धर्म का प्रभाव दिखाना होगा। यदि वैसा करने में तुम सफल रही तो मैं तन-मन से जिन धर्म को अंगीकार कर लूंगा।
रुद्रदत्त ने जिनमती पर यह शर्त थोप दी। जिनमती धर्म की परीक्षा नहीं लेना चाहती थी और न ही वह चमत्कार में धर्म मानती थी । पर पति के निर्णय के समक्ष विवश थी । रुद्रदत्त बुलन्द स्वर से शिवाराधना में तल्लीन था, वह पुनः पुनः प्रार्थना कर रहा था कि हे महादेव ! अग्नि के प्रकोप से उसके घर की रक्षा करो। परन्तु उसने देखा, उसका घर अग्नि ज्वालाओं से घिर गया है। तब उसने अन्य देवी-देवताओं से अग्नि से रक्षा की प्रार्थना की, पर उसकी प्रार्थना विफल रही।
रुद्रदत्त की आस्था डोल गई । वह उठ खड़ा हुआ। उसने जिनमती से कहा कि अब वह उसके घर की रक्षा करे। जिनमती ने सोचा, संभव है कि चमत्कार - दर्शन से उसके पति को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाए। इस विचार से उसने अपने हृदय में संकल्प किया और करबद्ध प्रार्थना की, हे शासनदेव! नगर को और नागरिकों Satara प्रकोप से मुक्त करो। जिनमती के इन शब्दों के साथ ही अग्नि का प्रकोप ऐसे शान्त हो गया जैसे फूंक मार देने पर दीपक बुझ जाता है। यह देखकर रुद्रदत्त चकित रह गया। सभी लोगों ने जिनमती स्तुतिगान किए और जिनधर्म की जय-जयकार की । अनेक लोगों ने श्रमण-धर्म को आत्मधर्म के रूप में अंगीकार किया । रुद्रदत्त ने भी जिनधर्म अंगीकार कर लिया ।
जिनमती ने कहा, चमत्कार जिन धर्म का लक्षण नहीं है। जिनधर्म का लक्षण तो आत्मकल्याण है । और इस जगत में आत्मकल्याण ही परम चमत्कार है ।
रुद्रदत्त सहित जनसमुदाय ने जिनमती के वचनों को हृदयंगम किया। जिनमती और रुद्रदत्त पूरे भाव से धर्म का पालन करते रहे । अन्त में दोनों ने प्रव्रज्या धारण की और परमगति का अधिकार प्राप्त किया। - बृहत्कथा कोष, भाग 1 ( आचार्य हरिषेण)
(ख) रुद्रदत्त
एक पुरोहित (देखिए-हरिकेशी मुनि)
रुद्रसूरि (आचार्य)
प्राचीन काल के एक जैनाचार्य । निर्ग्रन्थ धर्म में प्रव्रजित होने से पूर्व रुद्रसूरि (रुद्रदत्त) ब्राह्मण धर्म का समर्थ संवाहक था । गुणसेन आचार्य के प्रवचन से प्रतिबोध पाकर वह मुनि बन गया और शास्त्रों का अध्ययन कर समर्थ विद्वान बना । गुणसेन आचार्य रुद्रसूरि की विद्वत्ता पर मुग्ध थे, इसलिए कालधर्म को प्राप्त होने से पूर्व उन्होंने उसे आचार्य पद पर आसीन कर दिया । आचार्य रुद्रसूरि के श्रमण संघ में अनेक ज्ञानी-ध्यानी और विद्वान मुनिराज थे। पर चार मुनि विशिष्ट गुण सम्पन्न थे । प्रथम मुनि थे - बन्धुदत्त मुनि Satara में थे। द्वितीय थे- प्रभाकर मुनि, जो दीर्घतपस्वी थे । तृतीय थे-सोमिलन निमित्तशास्त्र के पारगामी विद्वान थे। और चतुर्थ थे - सामज्ज मुनि, जो योगविद्या में कुशल थे। इन चार मुनियों का श्रमण संघ और श्रावक संघ में विशेष आदर-मान था। उनके प्रभाव से आचार्य रुद्रसूरि मन ही मन ईर्ष्या का सूक्ष्म भाव रखते थे। फलतः वे कभी उक्त मुनियों की प्रशंसा अथवा गुणानुवाद में एक शब्द भी नहीं बोलते थे ।
एक बार रुद्रसूरि अपने मुनि संघ के साथ राजगृही नगरी में विराजमान थे । पाटलिपुत्र श्रीसंघ ने एक मुनि को आचार्य श्री के पास भेजा और संदेश निवेदित किया कि पाटलिपुत्र नगर में विदुर नामक एक व्यक्तलिंगी
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