________________
(क) रुक्मिणी
विहरमान तीर्थंकर प्रभु सीमंधर स्वामी ने गृहावस्था में रुक्मिणी नामक राजकुमारी से विवाह किया था। (देखिए-सीमंधर स्वामी) (ख) रुक्मिणी . वासुदेव श्री कृष्ण की पटरानी, विदर्भ देश के कुडिनपुर नगर के महाराज भीम की पुत्री तथा युवराज रुक्मी की बहन। उसकी माता का नाम शिखावती था। कृष्ण द्वारा रुक्मिणी-हरण का प्रसंग जैन, वैदिक
और आधुनिक साहित्य में सरसता से चित्रित हुआ है। कथा यूं है___सत्यभामा श्रीकृष्ण की पटरानी थी। वासुदेव की पटरानी होने के कारण वह गर्विता बन गई थी। नारद जी सत्यभामा के गर्व को तोड़ना चाहते थे। वे किसी ऐसी सुशील कन्या की तलाश में थे जो श्रीकृष्ण की पटरानी बनने के सर्वथा योग्य हो। घुमक्कड़ प्रकृति के नारद जी की दृष्टि रुक्मिणी पर पड़ी। उन्हें रुक्मिणी सर्वथा योग्य कन्या प्रतीत हुई। चित्रों के आदान-प्रदान और गुण संकथन के द्वारा नारदजी श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के मध्य प्रेमाकर्षण जगाने में सफल हो गए। पर राजकमार रुक्मी ने अपने पिता और बहन की इच्छा की अवहेलना करके चन्देरी नरेश शिशपाल के साथ रुक्मिणी का सम्बन्ध तय कर दिया। शिशुपाल बारात लेकर कुंडिनपुर पहुंचा। रुक्मिणी ने एक विश्वस्त और कुशल पुरोहित के हाथ श्रीकृष्ण के पास एक पत्र भेज दिया। श्रीकृष्ण अग्रज बलराम के साथ कुंडिनपुर के बाह्य भाग में स्थित प्रमद बाग में पहुंचे। संकेतानुसार रुक्मिणी कामदेव की पूजा के बहाने प्रमद बाग में पहुंच गई। श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का हरण कर लिया। शिशुपाल और रुक्मी ने श्रीकृष्ण का पीछा किया। श्रीकृष्ण ने उन दोनों को परास्त कर दिया। शिशुपाल भाग खड़ा हुआ। रुक्मी को श्रीकृष्ण ने बन्दी बना लिया। आखिर रुक्मिणी की प्रार्थना पर उसे मुक्त कर दिया। अपनी पुत्री को सर्वयोग्य वर के साथ देखकर महाराज भीम अति प्रसन्न हुए। उन्होंने श्रीकृष्ण के साथ अपनी पुत्री का सविधि विवाह कर दिया।
श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी को अपनी पटरानी बनाया। रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण के ही समान एक परम तेजस्वी पुत्र को (प्रद्युम्न कुमार) जन्म दिया। कालान्तर में भगवान श्री अरिष्टनेमि से प्रतिबोध पाकर रुक्मिणी ने दीक्षा धारण की और परम पद प्राप्त किया।
-अन्तगड सूत्र वर्ग 5, अध्ययन 8 (ग) रुक्मिणी
__पाटलिपुत्र नगर के एक धनकुबेर धनदेव नामक श्रेष्ठी की रूपवती पुत्री। वह विदुषी और गुणवान थी। नगरभर में उसके रूप-गुण चर्चित थे। एक बार आर्य वज्रस्वामी अपने शिष्य समुदाय के साथ पाटलिपुत्र पधारे। रुक्मिणी वज्रस्वामी को देखकर उनके रूप पर मुग्ध हो गई। उसने अपने पिता धनदेव से निःसंकोच कह दिया कि आर्य वज्र ही उसके पति होंगे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वह अग्नि-प्रवेश करके प्राण दे देगी।
धनदेव श्रेष्ठी अपनी विदुषी और प्रिय पुत्री के निश्चय से सहमत होकर करोड़ों की सम्पत्ति तथा पुत्री रुक्मिणी को साथ लेकर आर्य वज्र की धर्मसभा में पहुंचा। सम्पत्ति आर्य वज्र के चरणों में रखकर श्रेष्ठी ने अपनी पुत्री का निश्चय उन्हें बताया। आर्य वज्र ने रुक्मिणी को आत्म प्रेम का रहस्य समझाया। आर्य वज्र के आत्मस्पर्शी उपदेश ने रुक्मिणी की विचार धारा को धर्म जल से आप्लावित कर दिया। रुक्मिणी घर नहीं लौटी और आर्य वज्र के धर्म संघ में दीक्षित होकर आत्म-पथ की साधिका बन गई।
मृण्मय प्रेम से चिन्मय प्रेम की साधिका बनकर रुक्मिणी अमर बन गई। -प्रभावक चरित्र पृष्ठ 6 .. जैन चरित्र कोश ..
-493 ...