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अजापुत्र आठ वर्ष का हुआ तो एक बार उसकी भेंट राजा से हुई। उसी समय राजा की कुल देवी ने राजा को सावधान किया कि वह बालक उसका वध करके उसके सिंहासन पर अधिकार करेगा। भविष्य को जानकर राजा तलवार लेकर अजापुत्र की ओर दौड़ा। मंत्री ने राजा को वैसा करने से रोका और कहा कि वैसा करने से नाहक ही उसका अपयश होगा। अपयश से बचने का यही उपाय है कि बालक को जंगल में अकेला छोड़ दिया जाए, जहां वह स्वतः ही जंगली जानवरों का आहार बन जाएगा। वैसा ही किया गया। अजापुत्र राजा के प्रति क्रोध का भाव लेकर जंगल में भटकने लगा। यहीं से अजापुत्र के परोपकार और पराक्रम की कथा शुरू हुई। उसने अपने पराक्रम से असंभव से दिखाई देने वाले कार्यों को सहज संभव बना दिया। उसके जीवन-पथ पर कई बार अलौकिक और चमत्कारिक घटनाक्षण भी आए, कठिन से कठिन क्षणों में भी उसने अपनी परोपकार वृत्ति और परामक्रमशीलता का परित्याग नहीं किया और उसी के बल पर उसने अकूत वैभव प्राप्त किया। अंत में उसने चन्द्रानमी नरेश का वध कर उसका राज्य भी प्राप्त किया। उसके पिता का ज्योतिषशास्त्र अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ। अनेक वर्षों तक राजपद पर रहकर अजापुत्र ने अंतिम अवस्था में दीक्षा ली और स्वर्ग पद पाया।
-अजापुत्र कथानकम् अजितनाथ (तीर्थंकर)
भगवान अजितनाथ जैन परम्परा के द्वितीय तीर्थंकर थे। उनका जन्म अयोध्या नगरी के राजा जितशत्रु की रानी विजया देवी की रत्नकुक्षी से माघशुक्ला ८ को हुआ था। परम पुण्यशाली पुत्र के जन्म से राजा जितशत्रु के यश और गौरव में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। दुर्दान्त शत्रु उनके समक्ष नतमस्तक हो गए। संसार में वे अविजित सम्राट् का गौरव पा गए। राजा ने अपने इस यश और प्रतिष्ठा का कारण अपने पुण्यवान् पुत्र को ही माना और उसका नाम अजितनाथ रखा। ___अजितनाथ युवा हुए। पिता ने उन्हें राजपद पर प्रतिष्ठित कर दिया। सुदीर्घ काल तक उन्होंने न्याय
और नीति से शासन किया। जब उनका आयुष्य एक लाख पूर्व का शेष रह गया तो उन्होंने अपने चाचा सुमित्रविजय के पुत्र सगर को राजपद प्रदान करके दीक्षा धारण कर ली। बारह वर्ष के साधनाकाल के पश्चात् उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। वे तीर्थंकर बन गए। उनके उपदेशों से लाखों भव्यजीवों ने जीवन के सम्यक् लक्ष्य को पहचाना और आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। एक लाख पूर्व तक चारित्र का पालन करके और लाखों प्राणियों के लिए कल्याण का द्वार बनकर भगवान अजितनाथ मोक्ष में पधारे।
भगवान अजितनाथ के दो पूर्वभवों का वर्णन प्राप्त होता है, यथा-1. राजा विमल वाहन और 2. विजय देवलोक।
दो भव पूर्व भगवान अजितनाथ का जीव महाविदेह क्षेत्र में विमलवाहन नामक एक परम प्रतापी सम्राट था। एक मुनि के उपदेश से विमलवाहन भोगों से विरक्त बन गया। उसने जिनदीक्षा धारण करके उग्र तपश्चरण किया। फलस्वरूप तीर्थंकर गोत्र का अर्जन किया। आयुष्य पूर्ण कर वह विजय नामक देवलोक में गया। वहां से च्यव कर अजितनाथ के रूप में उत्पन्न हुआ।
-त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र अजितवीर्य स्वामी (विहरमान तीर्थंकर)
बीसवें विहरमान तीर्थंकर । पुष्करार्ध द्वीप के पश्चिम महाविदेह क्षेत्र की नलिनावती विजय की वीतशोका नामक नगरी में प्रभु का जन्म हुआ। महाराज राज्यपाल और महारानी कर्णिका प्रभु के पिता और माता हुए। रलमाला के चिह्न से सुशोभित प्रभु का पाणिग्रहण स्वस्तिका नामक राजकन्या से हुआ। तिरासी लाख पूर्व
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