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नगर नरेश महाराज रिपुमर्दन का पुत्र ललितांग कुमार भी साध्वी जी के प्रवचनों को सुनकर उनका भक्त बन गया। उसने वचन-पालन का नियम साध्वी जी से ग्रहण किया । नियम ग्रहण करते हुए उसने प्रतिज्ञा की कि जाने-अनजाने से भी उसके मुख से निकले प्रत्येक वचन का वह प्राण देकर भी पालन करेगा।
समय अपनी गति से सरकता रहा। एक बार नगर भ्रमण करते हुए राजकुमार ललितांग की दृष्टि रत्नवती पर पड़ी। रत्नवती के रूप पर राजकुमार मुग्ध हो गया। उसने उससे विवाह का निश्चय कर लिया और अपने निश्चय से अपने जनक-जननी को परिचित करा दिया । पुत्र के हृदय की बात से परिचित होकर राजा ने सेठ धनपति को अपने पास बुलाया और उसकी पुत्री का हाथ अपने पुत्र के लिए मांगा । श्रेष्ठी गद्गद हो गया और उसने आंखें मूदंकर अपनी स्वीकृति राजा को दे दी । रत्नवती को पूरी बात ज्ञात हुई । वह सन्न रह गई। वह विचारशील बन गई कि क्या विवाह रचाकर वह अपने नियम का निर्वाह कर पाएगी ? पर शीघ्र ही उसे स्मरण हुआ कि राजकुमार वचन का धनी है। मैं उससे ऐसा वचन उगलवाऊंगी कि उसके साथ रहने पर भी मेरा शील धर्म अखण्ड बना रहे। हुआ भी वैसा ही । रत्नवती ने ललितांग के सुहाग कक्ष में पहुंचने से पूर्व ही निद्रा का अभिनय किया। कुछ विलम्ब से ललितांग सुहागकक्ष में आया और रत्नवती को निद्राधीन देखकर कर स्पर्श से उसे जगाने लगा। इस पर रत्नवती ने सुविचारित वाक्य कहा, भैया ! सोने दो, मुझे नींद आ रही है।
इसे शील की महिमा कहें या दैवयोग कहें, ललितांग के मुख से निकला, आज तो अपनी बहन को सोने नहीं दूंगा। राजकुमार के मुख से ऐसा शब्द निकला और वह तत्क्षण शैया से पीछे हट कर खड़ा हो गया। बोला, रत्नवती! अजाने से ही सही, पर मेरे मुख से तुम्हारे लिए 'बहन' शब्द निकला है। अब मैं प्रा देकर भी इस वचन का पालन करूंगा। मैं तुम्हें भाई का ही पद दे सकता हूँ, पति का नहीं । रत्नवती का काम्य पूर्ण हो गया, उसने भी अपना संकल्प दोहरा दिया कि हम दोनों लोकदृष्टि से भले ही पति-पत्नी हैं पर धर्म दृष्टि से हम आजीवन भाई-बहन बने रहकर धर्माराधना करेंगे ।
रत्नवती की प्रार्थना पर ललितांग ने एक अन्य राजकुमारी से पाणिग्रहण किया। पर राजकुमार का मन भोगों में नहीं रमा । वह अपना अधिक से अधिक समय रत्नवती से धर्मचर्चा में व्यतीत करता। इससे ईर्ष्या की अग्नि में जलकर राजकुमार की नवागन्तुक पत्नी ने रत्नवती पर चारित्रहीनता का दोषारोपण भी किया। पर उसे स्वयं ही नीचा देखना पड़ा।
एक बार आर्यिका सुव्रता पुनः नगर में पधारीं । उन्होंने अपने प्रवचन में रत्नवती के शील की महिमा का रहस्योद्घाटन किया जिसे सुनकर नगरजन अभिभूत हो उठे । रत्नवती मानवों और देवों की आस्था का केन्द्र बन गई। देवलोक तक में उसके शीलधर्म का यशगान होने लगा आयु के उत्तरार्ध पक्ष में रत्नवती और ललितांग कुमार ने प्रव्रज्या धारण की। विशुद्ध संयम की आराधना करते हुए दोनों अर्धमासिक अनशन के साथ देहोत्सर्ग करके देव गति में गए। वहां से महाविदेह में जन्म लेकर दोनों भव्य जीव मोक्ष जाएंगे। (ख) रत्नवती
कालकूट द्वीप की राजकुमारी और युवा व्यापारी रत्नपाल की अर्द्धांगिनी । ( देखिए- रत्नपाल) (ग) रत्नवती
सिंहलद्वीपान्तर्गत जयपुर नगर की राजकुमारी और रत्नपुरी नरेश रत्नशिखर की परिणीता । (देखिए -
• जैन चरित्र कोश •••
रत्नशिखर)
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