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ढंग से ठिठक गया। आकाश से राजा यशोवर्मा पर पुष्पों की वर्षा होने लगी। कुलदेवी ने प्रकट होकर राजा से कहा, वत्स! तुम्हारी जय हो। तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए ही मैंने गाय का रूप धारण कर यह पूरा उपक्रम किया था। तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हुए।
प्रजा ने श्रद्धाभिभूत बनकर अपने राजा की न्यायप्रियता की जय-जयकार की। उसके बाद राजा ने अपने पुत्र अतिदुर्दम को राजपद प्रदान कर आहती दीक्षा धारण की और विशुद्ध चारित्र की आराधना करके परम पद प्राप्त किया। ___अतिदुर्दम ने भी अपने पिता के पगचिन्हों पर चलकर न्याय और नीतिपूर्वक शासन किया। जीवन के उत्तर-पक्ष में उसने भी संयम की आराधना द्वारा आत्मकल्याण किया और सद्गति का अधिकार पाया।
-उपदेश सप्ततिका युगबाहु
सुदर्शन नगर का युवराज, और नगर के राजा मणिरथ का अनुज। युगबाहु सरल और शूरवीर युवक था। अनिंद्य सुंदरी मदनरेखा उसकी अर्धांगिनी थी। एक बार मणिरथ मदनरेखा के लावण्य पर मुग्ध बन गया और उसने कपट से युगबाहु को राज्यसीमा पर युद्ध के लिए भेज दिया। पर मणिरथ मदनरेखा को अपने जाल में फंसा पाने में असफल रहा। भाई के समक्ष उसका पाप प्रकट न हो जाए इसलिए युगबाहु के लौटने पर उसने कपट से उसकी हत्या कर दी। अन्तिम समय में मदनरेखा ने अपने पति युगबाहु को क्रोध और वैर से मुक्त रहने का शिक्षा मंत्र दिया जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु को प्राप्त कर युगबाहु ऋद्धिसम्पन्न देवता बना। (दखिए-मदनरेखा) । युगमन्धर स्वामी (विहरमान तीर्थंकर)
द्वितीय विहरमान तीर्थंकर जो वर्तमान में पश्चिम महाविदेह की वपु विजय में विराजमान हैं। विजया नगरी के महाराज सुदृढ़ की रानी सुतारा के गर्भ से प्रभु का जन्म हुआ। तिरासी लाख पूर्व तक गृहस्थ और राजपद भोगकर प्रभु संयमी बने और कैवल्य साधकर तीर्थंकर पद पर आरूढ़ हुए। भव्य जीवों के लिए कल्याण का द्वार बने प्रभु वर्तमान में वपु विजय में विहरणशील हैं। युधिष्ठिर
हस्तिनापुर नरेश महाराज पाण्डु के ज्येष्ठ पुत्र एवं महारानी कुन्ती के आत्मज । अपनी सत्यवादिता के कारण युधिष्ठिर धर्मराज कहलाए। उनका जीवन इतना पवित्र था कि उनके शत्रु भी परोक्ष रूप से उनके सद्गुण गाते थे। जहां ये सब गुण उनके जीवन में थे वहां एक दुर्गुण भी था, वह दुर्गुण था द्यूत । वस्तुतः उस युग में धूत को भी युद्ध के समान ही माना जाता था। क्षत्रिय के लिए जैसे युद्ध का आमंत्रण अस्वीकार करना अपमानजनक माना जाता था वैसे ही चूत का आमंत्रण अस्वीकार करना भी अपमानजनक माना जाता था। कौरवों और पाण्डवों में पारस्परिक ईर्ष्या के बीज उनके अध्ययन काल से ही वपित हो गए थे। बाद में धृतराष्ट्र को जब नैतिक दबावों के समक्ष झुककर युधिष्ठिर को युवराज घोषित करना पड़ा तो दुर्योधन की । ईर्ष्या आसमान छूने लगी। उसने लाक्षागृह का षड्यन्त्र रचकर पाण्डवों की हत्या करनी चाही पर बुद्धिमान पाण्डव उससे बच निकले। परन्तु प्रकट रूप से यही प्रचारित हुआ कि पाण्डव लाक्षागृह में जलकर मर गए हैं। परिणामतः दुर्योधन को हस्तिनापुर का युवराज बना दिया गया। पाण्डव जब हस्तिनापुर लौटे तो एक ही राज्य के दो-दो युवराज हो जाने से विकट स्थिति बन गई। तब राज्य के दो भाग करके इस समस्या का ... जैन चरित्र कोश ...
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