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अग्निशिखा
कुट्ट देश के बलसारा ग्राम के एक निर्धन ब्राह्मण अग्निशिख शर्मा की अर्द्धांगिनी । (देखिए -आरामशोभा) अग्निसिंह
वाराणसी नरेश, सप्तम वासुदेव दत्त के पिता । (देखिए - दत्त वासुदेव)
(क) अचल
निव्वयपुर नगर का रहने वाला एक सहस्रयोधी सुभट । एक बार नगर में एक चोर का ऐसा आतंक व्याप्त हुआ कि सभी नागरिकों ने मिलकर नगर-नरेश रामचन्द्र से प्रार्थना की कि चोर से उनकी रक्षा की जाए। राजा को अचल पर विश्वास था कि वही एक ऐसा योद्धा है जो इस कठिन कार्य को पूरा कर सकता है। राजा के संकेत पर अचल चोर को पकड़ने के लिए चल दिया । परन्तु चोर उसे नहीं मिला । चोरियां निरन्तर होती रहीं । अचल हैरान-परेशान हो गया । 'वह राजा के विश्वास पर खरा नहीं उतर सका' इस विचार ने उसे दुखी कर दिया । उसने आत्महत्या करने का संकल्प कर लिया । श्मशान में गया। वहां उसे एक महापिशाच मिला। महापिशाच क्षुधातुर था। उसने अचल से मांस की याचना की । अचल ने विचार किया कि मुझे तो मरना ही है, यह देह किसी की क्षुधा की उपशान्ति का निमित्त बन जाए तो इससे श्रेष्ठ क्या हो सकता है। उसने अपने शरीर का मांस काट-काट कर महापिशाच को प्रदान किया। उसके शरीर के अधिकांश भाग का आहार करने पर भी महापिशाच की क्षुधा नहीं मिटी तो अचल ने स्वयं को सर्वांगतः उसके समक्ष डाल दिया। उसके इस समर्पण से महापिशाच अति प्रसन्न हुआ । उसने उसे स्वस्थ बना दिया और साथ ही उस चोर के बारे में बता दिया, जिसे न पकड़ पाने के प्रायश्चित्तस्वरूप अचल मरने के लिए
हुआ था।
वह चोर एक साधुवेशी था, जो दिन में लोगों को सदाचार का उपदेश देता था और रात्रि में चौर्यकर्म जैसे दुराचार का आचरण करता था । अचल के उपक्रम से चोर को बन्दी बना लिया गया। राजा ने उसे मृत्युदण्ड दिया। अचल के मन के अन्दर यह भाव बैठ गया कि चोर की मृत्यु का कारण वह स्वयं है । उसे आत्मग्लानि हो गई। उसी अवसर पर उसे एक मुनि के दर्शनों का सुसंयोग प्राप्त हो गया। मुनि के उपदेश से अचल प्रव्रजित हो गया । उसने अध्ययन और तप से अपनी आत्मा को निर्धार बनाया। श्रीसंघ में अचल मुनि का आदर- मान निरंतर वर्धमान होता गया । आखिर अचल मुनि के ही कृपा - उपदेश से राजा रामचन्द्र ने भी जैन धर्म को अंगीकार किया। 'यथा राजा तथा प्रजा' के सिद्धान्तानुसार निव्वयपुर की पूरी जनता भी जैन धर्मानुरागी बन गई। धर्म की महाप्रभावना से अचल मुनि ने तीर्थंकर गोत्र का अर्जन किया। आयुष्य पूर्ण कर अचल मुनि सौधर्म कल्प में देव बने । देवायु पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में जयमित्र नामक राजकुमार बने। युवावस्था में जयमित्र प्रव्रजित हुए । केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थ की स्थापना की और तीर्थंकर पद पर आरूढ़ हुए। असंख्य भव्यों के लिए कल्याण का कारण बनकर वे सिद्ध हुए । - कथा रत्नकोष : भाग 1 (ख) अचल
द्वारिका के राजा अन्धकवृष्णि और रानी धारिणी के पुत्र । इनका जीवन परिचय गौतम के समान है। (दिखिए- गौतम ) - अन्तगड सूत्र, प्रथम वर्ग, षष्ठम अ.
(ग) अचल (कुमार)
समग्र परिचय गौतमवत् है । ( देखिए- गौतम)
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- अन्तगड सूत्र, द्वितीय वर्ग, प्रथम अध्ययन
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