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कथन पर राजकुमार देवराज को बुलाया गया। लक्ष्मीवती ने मन ही मन संकल्प किया- यदि उसने तन-मन-वचन से शील पालन किया है तो उसके स्पर्श से राजकुमार कुष्ठमुक्त हो जाए। इस संकल्प के साथ लक्ष्मीवती ने राजकुमार देवराज का स्पर्श किया। उसके स्पर्श मात्र से राजकुमार रोग मुक्त हो गया। राज्य में सर्वत्र प्रसन्नता व्याप्त हो गई। राजा की प्रार्थना पर यशोदत्त ने अपनी पुत्री लक्ष्मीवती का विवाह राजकुमार देवराज से सम्पन्न कर दिया। महाराज श्रीषेण देवराज को राजपद प्रदान कर प्रव्रजित हो गए ।
देवराज ने सुन्दर शासन किया। लक्ष्मीवती उसकी इकलौती रानी थी। सुखपूर्वक समय बिताते हुए एक बार देवराज को एक ज्ञानी मुनि के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ । राजा-रानी ने मुनि-वन्दन किया । देवराज ने अपने कुष्ठ रोग के बारे में मुनि से पूछा। मुनि ने राजा को उसका पूर्व भव सुनाया और स्पष्ट किया कि उसने सात बार चंदोवा जलाया था जिसके फलस्वरूप उसे सात वर्षों तक कुष्ठ रोगी रहना पड़ा।
अपना पूर्वभव सुनकर देवराज और लक्ष्मीवती प्रबुद्ध बन गए। दोनों ने दीक्षा धारण की और देवगति में गए। अनुक्रम से सिद्धत्व प्राप्त करेंगे।
- जैन कथा रत्न कोष, भाग-4 / - श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र ( श्री रत्नशेखर सूरिकृत )
मृगांकुश
एक प्राचीन जैन मुनि ।
(क) मृगापुत्र (मृगालोढा)
विपाक सूत्र के प्रथम अध्ययन का एक ऐसा पात्र जिसने मानव देह पाकर भी नारकीय जीवन पाया। वह जन्म से ही अन्धा, बहरा, अपंग और असह्य दुर्गन्ध सम्पन्न शरीर वाला मनुष्य था । मनुष्य क्या था, बस मात्र कहने को मनुष्य था । इन्द्रियों के चिन्हों के स्थान पर उस मांस पिण्ड में छिद्र मात्र थे । घोर अशुचि, रक्त और मवाद उन छिद्रों से झरता रहता था जिसे वह पुनः पुनः चाटता था।
एक मानव को ऐसा निकृष्ट जीवन क्यों मिला? इसका उत्तर भगवान महावीर ने स्वयं अपने श्रीमुख से दिया है, उसका विवरण इस प्रकार है
प्राचीन समय में भारतवर्ष में शतद्वार नाम का एक नगर था। वहां धनपति नामक राजा राज्य करता था। उसके राज्य में विजयवर्धमान नाम का एक ग्राम था । उस ग्राम में इकाई राठोर नाम का एक ठाकुर रहता था। वह पांच सौ ग्रामों का स्वामी था । वह अत्यन्त क्रूर और अधर्मी था । धर्म और अधर्म का उसके लिए कोई अर्थ न था । प्रजा को पीड़ित करना, उसके धन और द्रव्य को हड़प लेना, चोरी करना और कराना, यात्रियों को लूट लेना उसके दैनिक कार्य थे। उसका एकमात्र लक्ष्य था धन संग्रह । जीवनभर वह ऐसे ही निन्दनीय कर्मों में लगा रहा। उसके अधीनस्थ जनता त्राहि-त्राहि करती रही । आखिर प्रत्येक बात की एक सीमा होती है। एक बार इकाई बीमार हो गया। सोलह महारोग उसके शरीर में उभर आए। धन को पानी की तरह बहाकर उसने अपना उपचार कराया। अनेक वैद्य और हकीम आए पर वह रोगमुक्त न हो सका और अतृप्त कामनाओं के साथ ही महान व्याधि भोगता हुआ मरकर प्रथम नरक में गया। सुदीर्घकाल तक नरक की यातनाएं भोगने के पश्चात् इकाई का जीव मृगा ग्राम के राजा विजय की रानी मृगावती के गर्भ में उत्पन्न हुआ। उक्त पापात्मा के गर्भ में आते ही राजा का अपनी रानी पर से प्रेमभाव कम हो गया। रानी ने इसे गर्भस्थ शिशु के प्रभाव के रूप में ही देखा । औषधोपचार आदि के द्वारा उसने गर्भ गिराने के अनेक यत्न किए पर सब निष्फल हुए। गर्भकाल से ही शिशु भस्मक रोग से ग्रस्त था । वह जो भी खाता उसका रक्त
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