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शंकित हैं, उनका अहं गल गया। अपने पांच सौ शिष्यों के साथ उन्होंने महावीर का शिष्यत्व अंगीकार कर लिया। उनचास वर्ष की अवस्था में दीक्षित होने वाले अकम्पित ने अठावन वर्ष की अवस्था में केवलज्ञान पाया। अट्ठत्तर वर्ष की सम्पूर्ण आयु भोगकर उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया । - महावीर चरित्त
अकलंक भट्ट (आचार्य)
जैन परम्परा के एक विद्वान और वादि- मान-मर्दक जैन आचार्य । वी. नि. की चौदहवीं शती आचार्य भट्ट अकलंक का समय अनुमानित है। वह युग शास्त्रार्थों के लिए विख्यात रहा है। जैन, वैदिक और बौद्ध अपने-अपने पक्ष को मजबूत सिद्ध करने के लिए परस्पर शास्त्रार्थ करते थे । उस समय बौद्धों का विशेष प्रभाव था । आचार्य अकलंक ने बौद्ध विद्वानों से कई बार शास्त्रार्थ किए और उन्हें पराजित किया ।
आचार्य अकलंक की गृहस्थावस्था के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताएं हैं । 'राजवलिकथे' ग्रन्थानुसार आचार्य भट्ट अकलंक का जन्म कांची के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम जिनमती और पिता का नाम जिनदास था। आराधना कथाकोष के अनुसार पुरुषोत्तम और पद्मावती उनके पिता-माता के नाम थे। एक अन्य मान्यतानुसार उन्हें लघुहव्व नामक नरेश का ज्येष्ठ पुत्र माना गया है।
अकलंक के सहोदर का नाम निष्कलंक था । बाल्यावस्था में ही दोनों भाइयों ने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत गुरु रविगुप्त से लिया था। दोनों भाइयों में अध्ययन रुचि अत्यधिक प्रबल थी । निकट जैन शिक्षण संस्थान न होने से दोनों भाइयों ने बौद्ध विद्यालय में प्रवेश ले लिया। उस युग में धर्मान्धता पराकाष्ठा पर थी । अन्य धर्म को मानने वाला अन्य धर्मी विद्यालय का छात्र नहीं हो सकता था। अकलंक - निष्कलंक बौद्ध शिक्षकों द्वारा पहचान लिए गए कि वे जन्मना जैन हैं। उन्हें मारने का आदेश जारी हुआ। दोनों कुमार जान बचाकर भागे । अकलंक बच गए, निष्कलंक मार दिए गए।
अकलंक मुनि बने और अपनी अध्ययन रुचि के कारण अपने युग के उत्कृष्ट विद्वान हुए । से वे आचार्य पद पर आसीन हुए। कई राजाओं पर उनका प्रभाव रहा। अपने युग के वे अपराजेय वादी रहे । उनकी कई रचनाएं वर्तमान में प्राप्त हैं, जो उनकी विद्वत्ता की सहज परिचायक हैं।
- आराधना कथाकोष
अकलशा सेठ
घोघापाटण नगर का रहने वाला एक धर्मात्मा और संतोषी सेठ । नगर में उसकी संतोषवृत्ति और प्रामाणिकता का बड़ा सम्मान था । सेठ का अधिकांश समय सामायिक, संवर और स्वाध्याय को ही समर्पित था । सेठ की पत्नी का नाम भद्रा था जो एक पतिपरायण महिला थी । पर भद्रा की वृत्ति पति के समान संतोषप्रिय न थी । वह चाहती थी कि उसके पास बहुत धन-दौलत हो । किसी समय भद्रा पड़ौसी सेठ हीराचन्द की पत्नी लक्ष्मीदेवी से मिलने गई। लक्ष्मी देवी के उच्चस्तरीय रहन-सहन को देखकर भद्रा को बड़ी आत्मग्लानि हुई। उसने अपने पति के पास जाकर उसे व्यापार के लिए प्रेरित किया । अकलशा सेठ ने पत्नी को समझाने का यत्न किया पर उसका प्रयत्न सफल नहीं हुआ। आखिर अकलशा सेठ ने नानचन्द नामक एक भद्र व्यक्ति के साथ मिलकर पन्द्रह हजार मुद्राओं से व्यापार प्रारंभ किया। उसे पर्याप्त लाभ हुआ। दो वर्ष के पश्चात् व्यापार में लगाई गई सम्पत्ति कई गुणा हो गई। अकलशा ने नानचन्द को स्पष्ट निर्देश दिए थे कि वह अपनी मूल पूंजी से अधिक भाव कभी न लगाए। पर एक दिन एक सुरक्षित प्रस्ताव देखकर नानचन्द ने अधिक लाभ के लोभ में पन्द्रह लाख मुद्राएं भाव पर लगा दीं। दुर्दैववश भाव विपरीत रहा और उसके सिर पर पन्द्रह ••• जैन चरित्र कोश -
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