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का रूप धारण कर राजा को मोहित किया। उसके रूप पर मंत्र-मुग्ध बनकर राजा ने उसे एक भवन दे दिया और कहा, कि वह केवल उसी के लिए नृत्य करेगी। वह उसे अपनी पत्नी का मान देकर अपने साथ रखेगा। भुवनानंदा की योजना का दूसरा चरण भी पूरा हो गया। जब वह सगर्भा बन गई तो उसने राजा से उसकी मुद्रिका प्राप्त की और एक दिन सबकी दृष्टि बचाकर अपने पिता के घर चली गई। उसने पितृगृह में ही पुत्र को जन्म दिया। फिर एक दिन रथारूढ़ होकर अपने महल में पहुंच गई। क्रोध में उन्मत्त बनकर राजा उसके महल में पहुंचा। पर वहां भुवनानंदा के स्थान पर लीलावती को देखकर वह विभ्रमित बन गया । आखिर राजा को ज्ञान हो गया कि भुवनानंदा ही लीलावती थी तो उसका क्रोध काफूर हो गया। उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली और भुवनानंदा को पूरा मान देकर अपनी पटरानी का पद उसे प्रदान किया । भुवनानंदा ने अपने जातिस्मरण की बात राजा को बताई और स्पष्ट किया कि पूर्वभव में वह सलोनी मालिन थी । कर्म की विचित्रता देख-सुनकर राजा दंग रह गया।
कालान्तर में भुवनानंदा और रिपुमर्दन, दोनों ने संयम धारण कर मोक्ष प्राप्त किया।
भूतदत्त
एक चाण्डाल। (देखिए - ब्रह्मदत्त)
भूतदत्ता
महाराज श्रेणिक की रानी । शेष परिचय नन्दावत् । (देखिए - नन्दा ) - अन्तगडसूत्र वर्ग 7, अध्ययन 13 भूतदिन (आचार्य)
एक प्रभावक जैन आचार्य । नंदी सूत्र स्थविरावली के अनुसार आर्य भूतदिन्न परम आचारनिष्ठ आचार्य थे। प्राणान्त उपसर्गों की उपस्थिति पर भी वे खिन्नमना नहीं बनते थे । विद्वद्वर्ग में उनका बहुत सम्मान था, जो उनकी विद्वत्ता को सिद्ध करता है । वे संयम विधि-विशेषज्ञ आचार्य थे ।
के
तुल्य
उनके शरीर की कांति तप्त स्वर्ण के सदृश, चम्पक पुष्प तुल्य अथवा उत्तम जाति वाले कमल के गर्भ-पराग पीत वर्णयुक्त थी। वे भव्य प्राणियों के हृदयवल्लभ तथा जनता में दया धर्म गुण उत्पन्न करने में थे । वे तत्कालीन दक्षिणार्द्ध भरत क्षेत्र में युगप्रधान आचार्य थे । वे बहुविध स्वाध्याय के परम विज्ञाता, और संघ में स्वाध्याय, ध्यान और वैयावृत्त्य के विशेष गुणों को वर्धमान करने वाले थे । वे प्राणियों को भव-भय से मुक्त करने वाले नाइल कुल के प्रभावक आचार्य थे। आर्य नागार्जुन ऋषि उनके गुरु थे।
नंदी स्थविरावली में आचार्य भूतदिन्न की ऐसे भावपूर्ण शब्दों में अर्चना-वन्दना हुई है।
आर्य भूतदिन्न गोविन्दाचार्य के उत्तरवर्ती आचार्य थे। उनका वी. नि. की नवम् शती में होना अनुमानित - नंदी सूत्र स्थविरावली
है ।
भूतबलि (आचार्य)
एक सुविख्यात श्रुतधर दिगम्बर आचार्य । मुनि जीवन अंगीकार करने से पूर्व वे सौराष्ट्र देश के नहपान नामक राजा थे। उन्होंने श्रेष्ठीपुत्र सुबुद्धि के साथ आर्हती प्रव्रज्या धारण की । धरसेन आचार्य उनके शिक्षागुरु थे। आचार्य धरसेन ने ही उन्हें 'भूतबलि' तथा सुबुद्धि को 'पुष्पदंत' नाम प्रदान किया था। आचार्य भूतबलि “षट्खण्डागम” के उत्तर भाग के रचयिता माने जाते हैं । इस ग्रन्थ का प्रारंभ आचार्य पुष्पदंत ने किया और पूर्णता आचार्य भूतबलि ने की।
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