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________________ भारतीय संस्कृति में श्रीराम के समान ही भरत की भी बड़ी महिमा है। उन्हें एक आदर्श पुत्र और निस्पृह पुरुष के रूप में श्रद्धा दी जाती है। (ख) भरत राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय के मंत्री और परम जिनभक्त जैन श्रावक। भरत की प्रशस्ति में तत्कालीन कविवर्य पुष्पदन्त ने उनके अनेक दिव्य गुणों की चर्चा करते हुए लिखा था-महामात्य भरत अनवरत-रचित जिननाथ-भक्ति और जिनवर समय-प्रासाद-स्तंभ थे। समस्त कलाओं और विद्याओं में कुशल थे, सत्यप्रतिज्ञ और निर्मत्सर थे। उनके अनेक गुणों का मुक्त हृदय से गुणगान करते हुए कवि ने कहा, बलि, जीमूतवाहन, दधीचि आदि परम गुणवान पुरुषों के स्वर्गवासी हो जाने के कारण उनके समस्त गुण भरत में आकर आश्रयीभूत बन गए थे। ___ नन्न भरत का पुत्र था। वह राष्ट्रकूट राज्य का गृहमंत्री था। पिता-पुत्र दोनों ही जिनभक्त थे। उन्होंने कई जिनालयों का निर्माण कराया था। महामात्य भरत ने कवि पुष्पदन्त से महापुराण नामक ग्रन्थ की रचना भी कराई थी। (ग) भरत (चक्रवर्ती) ___अवसर्पिणी काल के प्रथम चक्रवर्ती। भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र । कहते हैं इन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत प्रचलित हुआ। षट्खण्ड को साधकर भरत ने चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। उन्होंने लाखों पूर्यों तक न्याय और नीतिपूर्वक राज्य किया। राजपद पर रहते हुए भी उनका जीवन योगियों का सा जीवन था। एक समय शीशमहल में खड़े भरत जी शृंगार कर रहे थे। दर्पण में अपने सुन्दर रूप को देखकर मन ही मन प्रसन्न बन रहे थे। सहसा उनकी अंगुली से मुद्रिका निकलकर गिर गई। मुद्रिकारहित अंगुली कान्तिहीन प्रतीत होने लगी। भरत जी के मन में चिन्तन चला-दिखाई देने वाली शोभा उनकी अपनी नहीं है। उन्होंने एक-एक कर वस्त्र और आभूषण देह से अलग कर दिए। देह कान्तिहीन बन गई। नश्वरता का दर्शन गहरा होता गया। विचार शुक्ल से शुक्लतर बनते चले गए। शीशमहल में खड़े-खड़े ही उन्हें केवलज्ञान हो गया। अनुक्रम से उन्होंने सिद्धत्व प्राप्त किया। भवदेव प्राचीनकालीन एक श्रमण। उसने सुदीर्घ काल तक श्रमण-पर्याय का पालन किया पर उसका सम्यक्त्व परिपक्व नहीं था। सम्यक्त्व से पतित होकर उसका मरण हुआ। चारित्र की आराधना के कारण वह देव बना। देवलोक से च्यव कर मनुष्य बना और मनुष्य भव के बाद भवाटवी में खो गया। -कथारत्न कोष-भाग-1 भवानी ___ लक्ष्मीपुर नगर के सेठ लक्ष्मीधर की पुत्री। अपने पूर्वजन्म में वह भद्रनगर के भद्र नामक व्यापारी की पुत्री थी। उस जन्म में उसका नाम सुभद्रा था। सुभद्रा रसना इन्द्रिय के अधीन थी। भक्ष्याभक्ष्य का उसे विवेक नहीं था। अभक्ष्य-भक्षण में उसे आनन्द आता था। परिवार और परिजनों द्वारा पुनः-पुनः समझाए और चेताए जाने पर भी वह अभक्ष्य-भक्षण करती रही। उससे उसने महा-असातावेदनीय कर्मों का बन्ध किया। मरकर वह नरक में गई। नरक से निकलकर उसने कई भव तिर्यंच के किए। अपुण्य कुछ शांत हुए तो वह भवानी के रूप में जन्मी। भवानी जन्म से ही रोगिणी थी। अनेक रोगों से उसका शरीर ग्रस्त था। सेठ ... जैन चरित्र कोश - 383 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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