________________
सह न सके। उन्होंने तेजोलेश्या प्रगट करते हुए पूरे नगर को धुएं से भर दिया। चक्रवर्ती सनत्कुमार समझ गए कि यह अकारण सताए गए किसी मुनि के कोप का परिणाम है। वे अपनी रानी के साथ मुनि की सेवा में पहुंचे और नगर -रक्षा की प्रार्थना करने लगे । चित्त मुनि ने भी अनुज मुनि को समझाया, जिससे संभूति तेजोलेश्या का हरण कर लिया। चक्रवर्ती के साथ ही उनकी रानी सुनन्दा ने संभूति मुनि के चरणों प्रणाम किया। वैसा करते हुए रानी के कुंतल - केशों का मुनि के पैर से स्पर्श हो गया। उस कोमल स्पर्श से मुनि का चित्त चंचल बन गया। उसने रानी रूप और चक्रवर्ती के वैभव को देखकर निदान कर लिया कि उसके तप के बदले में उसे वैसी ही स्त्री और वैभव प्राप्त हो ।
आयुष्य पूर्ण कर चित्तमुनि और संभूति मुनि प्रथम देवलोक में उत्पन्न हुए। वहां से च्यव कर चित्त मुनि का जीव पुरिमताल नगर के एक धनी श्रेष्ठी के पुत्र के रूप में जन्मा तथा संभूति मुनि का जीव कंपिलपुर राजा ब्रह्मभूति की रानी चूलनी के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। वहां राजकुमार को ब्रह्मदत्त नाम दिया गया। ब्रह्मदत्त जब अल्पायु ही था तो राजा ब्रह्मभूति बीमार हो गया । रोग को असाध्य जानकर राजा ने अपने मित्र कौशल - नरेश दीर्घ को अपने पुत्र के लालन-पालन और राज्य के संरक्षण का दायित्व दे दिया । कुछ समय बाद ब्रह्मभूति का निधन हो गया । दीर्घराजा कंपिलपुर का राज्य संचालन करने लगा। वहां रहते हुए उसने रानी चूलनी के साथ प्रेम सम्बन्ध स्थापित कर लिए । ब्रह्मदत्त को इस रहस्य का पता चला तो उसने अपनी माता चूलनी और दीर्घराजा को सांकेतिक भाषा में दण्ड देने का अपना संकल्प जता दिया । इससे सावधान होकर चूलनी और दीर्घ ने ब्रह्मदत्त की हत्या का षड्यन्त्र रचा। पर मन्त्री की कुशलता से ब्रह्मदत्त अपने प्राण बचाकर गुप्त मार्ग से निकल गया ।
कालान्तर में अपने बाहुबल से ब्रह्मदत्त ने अनेक राजाओं को जीतकर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। अन्त में उसने दीर्घ को भी परास्त कर अपना पैतृक राज्य प्राप्त किया । षड्खण्ड पर विजय पताका फहराकर वह चक्रवर्ती सम्राट बन गया। किसी समय नाटक देखते हुए ब्रह्मदत्त को जातिस्मरण ज्ञान हो गया और उसने उस ज्ञान के द्वारा अपने अतीत के कई भव देखे । उसे चित्त की स्मृति हो आई, जिसके साथ उसने पिछले छह भव सहोदर के रूप में जीए थे। चित्त को खोज निकालने के लिए उसने एक उपक्रम किया । उसने एक श्लोकार्थ' की रचना कर उसे प्रचारित करवा दिया और घोषणा करवा दी कि जो कोई इस श्लोक को पूर्ण करेगा, उसे वह अपना आधा राज्य देगा । श्लोकार्ध में चित्त और संभूति पूर्व के छह भवों का सांकेतिक अर्थ निहित था ।
जन-जन के मुख पर श्लोकार्थ था। उधर चित्त का जीव पुरिमताल नगर में श्रेष्ठीपुत्र के रूप में युवा हुआ तो उसने मुनिदीक्षा अंगीकार कर । एक बार वे मुनि विहार करते हुए कंपिलपुर के एक उद्यान में आए। वहां एक ग्वाला उक्त श्लोकार्थ को दोहरा रहा था। उस श्लोकार्ध को सुनकर मुनि ने उसे पूरा कर दिया । " श्लोकपूर्ति से ग्वाला गद्गद हो गया और चक्रवर्ती के आधे राज्य को पाने के प्रलोभन में दौड़कर राजा के पास पहुंचा। उसने ब्रह्मदत्त को पूरा श्लोक सुनाया, जिसे सुनकर ब्रह्मदत्त मोहाभिभूत बनकर अचेत . हो गया । चक्रवर्ती की अचेतावस्था के लिए सैनिकों ने ग्वाले को उत्तरदायी मानकर उसे बन्दी बना लिया । वाले भय से कांपते हुए सच उगल दिया कि श्लोक की पूर्ति उसने नहीं, बल्कि एक मुनि ने की है । ब्रह्मदत्त स्वस्थ हुए और शीघ्र ही मुनि के पास पहुंचे। दोनों भाई परस्पर मिले । ब्रह्मदत्त ने मुनि को
1. आस्व दासी मृगी हंसी, मातंगा वामरौ तथा ।
2. एषा नौ षष्ठिका जातिः अन्योन्याभयां नियुक्तयोः । ••• जैन चरित्र कोश •
+373 944