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से लौटकर उसने महाराज उदायन को सत्य धर्म का मर्म समझाया और भगवान महावीर का भक्तं बनाया। पत्नी से प्रतिबोधित उदायन के जीवन में महान परिवर्तन आया। वह बारह व्रती श्रावक बन गया। उसकी क्षमा और सहनशीलता अद्वितीय थी। सम्वत्सरी के पर्व पर उसने महान कष्ट झेलकर बन्दी बनाए हुए चण्डप्रद्योत को सहज ही क्षमा कर दिया। यह सब प्रभावती के प्रतिबोध का प्रभाव था। महाविदेह में जन्म लेकर प्रभावती सिद्ध होगी। (ख) प्रभावती
कुशस्थल नरेश प्रसन्नजित की पुत्री, जिसका पाणिग्रहण पार्श्वकुमार से हुआ था। (दखिए-पार्श्वनाथ तीर्थंकर) प्रभास (गणधर)
भगवान महावीर के ग्यारहवें गणधर। वे राजगृह के बल ब्राह्मण और उसकी पत्नी अतिभद्रा के पुत्र थे। अल्पावस्था में ही वे वेद-वेदांगों के पारगामी विद्वान हो गए थे और मात्र सोलह वर्ष की अवस्था में ही वे भारत वर्ष के गण्यमान्य विद्वानों में परिगणित होने लगे थे। पर उनके मन में एक शंका थी कि मोक्ष है या नहीं। भगवान महावीर ने इनकी शंका का समुचित समाधान किया और मोक्ष का अस्तित्व सिद्ध कर दिया। संदेह-शूल से मुक्त होकर सरलमना प्रभास अपने तीन सौ छात्र शिष्यों के साथ भगवान के पास दीक्षित हो गए। मात्र सोलह वर्ष की अवस्था में दीक्षित होने वाले प्रभास मुनियों के गणधर बने। आठ वर्ष पश्चात् केवलज्ञान को साधकर सोलह वर्षपर्यंत केवली अवस्था में रहकर चालीस वर्ष की वय में मोक्ष पधारे। प्रभु
विंध्याचल पर्वत की तलहटी में बसे जयपुर नगर का राजा और पट्ट परम्परा के तृतीय पट्टधर प्रभव स्वामी का छोटा भाई। (देखिए-प्रभव स्वामी) प्रसन्नचंद्र राजर्षि
प्रसन्नचंद्र पोतनपुर नगर के राजा थे। भगवान महावीर का उपदेश सुनकर प्रतिबोधित हुए और अपने अल्प आयुष्य पुत्र को सिंहासन पर बैठाकर दीक्षित हो गए । किसी समय भगवान के साथ विचरण करते हुए राजगृह नगरी में पधारे और समवशरण के बाहर मार्ग से कुछ हटकर सूर्य के सामने ऊर्ध्वबाहु कर ध्यान में निमग्न हो गए।
महाराज श्रेणिक ससैन्य प्रभु वन्दन को निकले। उत्कट साधनारत प्रसन्नचंद्र मुनि को देखकर श्रेणिक बड़े प्रभावित हुए और उन्हें वन्दन कर भगवान के पास पहुंचे। श्रेणिक के पीछे-पीछे उनके दो दूत सुमुख
और दुमुख चल रहे थे। प्रसन्नचंद्र मुनि को देखकर दुमुख ने सुमुख से कहा-देखो, इन मुनि को ! स्वयं तो साधु बन गए हैं। पीछे इनके राज्य पर शत्रु राजा ने आक्रमण कर दिया है। इनके अल्पायुष्क पुत्र के प्राण संकट में हैं।
प्रसन्नचंद्र के कानों में उक्त टिप्पणी पड़ी। उनका धर्म-ध्यान, आर्त और रौद्र ध्यान में बदल गया। मन ही मन शत्रुओं से युद्ध करने लगे। उसी समय महाराज श्रेणिक ने भगवान को वन्दन कर प्रसन्नचंद्र मुनि की गति के विषय में प्रश्न किया। प्रसन्नचंद्र के मनोभावों का विश्लेषण करते हुए भगवान ने स्पष्ट किया कि इस क्षण प्रसन्नचंद्र काल धर्म को प्राप्त करें तो प्रथम नरक में जाएंगे। उधर प्रसन्नचंद्र मानसिक युद्ध के मैदान में रौद्र से रौद्रतर बनते जा रहे थे। इधर भगवान श्रेणिक को उनकी गति के सम्बन्ध में बता रहे थे। यों गिरते-गिरते प्रसन्नचंद्र सातवीं नरक तक पहुंच गए। ...जैन चरित्र कोश ...
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