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को भी यह सोचने के लिए बाध्य कर दिया कि यह तो उनसे भी बड़ा पराक्रमी है। प्रद्युम्न ने सत्यभामा को सुन्दर बनाने का प्रलोभन देकर उसका मुण्डन करा दिया। भानुकुमार को भी कई कौतुक दिखाए । अन्त में नारद जी ने स्पष्ट कर दिया कि यह आपका ही पुत्र रुक्मिणीनंदन प्रद्युम्न कुमार है। श्री कृष्ण ने हर्षानुभव करते हुए कहा - प्रद्युम्न तो मुझसे भी बड़ा पराक्रमी है।
कालान्तर में अनेक राजकन्याओं के साथ प्रद्युम्न का विवाह हुआ। आयु के अन्तिम भाग में प्रद्युम्न ने दीक्षा धारण की और निर्वाण प्राप्त किया ।
-अन्तकृद्दशांगसूत्र वर्ग अध्ययन 6
प्रधीकुमार
वाराणसी नगरी के श्रावक मोरध्वज का पुत्र । (देखिए - मोरध्वज)
प्रभंकरा (आर्या )
आर्या प्रभंकरा की जन्म नगरी अरक्खुरी तथा इनके माता-पिता के नाम इन्हीं के नामानुरूप थे। इनकी शेष कथा काली आर्या के समान है। (देखिए - काली आर्या ) -ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, द्वि.श्रु., वर्ग 7, अ. 4
प्रभव स्वामी (आचार्य)
तीर्थंकर महावीर की श्रमण संघीय परम्परा के तृतीय पट्टधर अनुशास्ता । श्रमण धर्म में प्रवेश से पूर्व का इनका जीवन उत्थान-पतन के घटनाक्रम से पूर्ण रहा । विवरण यूं है
विंध्याचल पर्वत के पास 'जयपुर' नाम का एक नगर था। वहां के राजा का नाम विंध्य था । उसके दो पुत्र थे- प्रभव और प्रभु । प्रभव बड़ा था और सुयोग्य भी था। परम्परानुसार वह राजपद का अधिकारी था । परन्तु महाराज विंध्य ने परम्परा को तोड़ते हुए अपने छोटे पुत्र प्रभु को राजपद दे दिया। इससे प्रभव को बड़ा कष्ट हुआ। उसने इसे अपना अपमान भी माना । पिता और भाई से अपने अपमान का बदला लेने के लिए उसने गृहत्याग कर दिया और विंध्यपर्वत के पास के जंगलों में उसने एक चोरपल्ली बसा ली। धीरे-धीरे उसके गिरोह में पांच सौ चोर सम्मिलित हो गए । उसने अपने भाई के राज्य में तो आतंक फैलाया ही, अन्य अनेक राज्यों चम्पा, राजगृह तक में उसका आतंक फैल गया। उसने ' अवस्वापिनी' और 'तालोद्घाटिनी' नामक दो विद्याएं भी सिद्ध कर लीं। प्रथम विद्या से वह जहां पूरे नगर को निद्राधीन कर देता था, वहीं दूसरी विद्या से वह ताले खोल देता था। इन विद्याओं को प्राप्त कर लेने के बाद तो उसका सब जगह निराबाध प्रवेश हो गया। जहां भी उसे प्रभूत धन की सूचना मिलती, वह अपने साथियों के साथ वहां पहुंच जाता और विद्याओं के बल पर धन लूट ले जाता। ऐसे उसके पास अपार सम्पत्ति संचित हो गई ।
राजगृहवासी जम्बूकुमार के विवाह के प्रसंग पर उसकी आठ ससुरालों से अपार सम्पत्ति दहेज में आई। इसकी सूचना प्रभव तक पहुंची तो वह विवाह की रात्रि में ही राजगृह जा पहुंचा। अवस्वापिनी विद्या से उसने पूरे नगर को निद्राधीन बना दिया। तब उसने अपने पांच सौ साथियों के साथ जंबूकुमार के महल प्रवेश किया। पूरा धन गृहांगन में ही बिखरा पड़ा था। पांच सौ चोरों ने धन के बड़े-बड़े गट्ठर बांध लिए। पर जैसे ही वे चलने लगे, किसी दैवी शक्ति ने उन्हें स्तंभित कर दिया। उनके पैर जमीन से चिपक गए। वे न एक कदम आगे जा सके और न पीछे हट सके। प्रभव ही था, जिसके पैर अस्तंभित थे। उस अपने साथियों से चलने के लिए कहा तो उन्होंने पूरी बात कह दी और चल सकने में अपनी विवशता दर्शाई । यह देख-सुनकर प्रभव चकित रह गया। उसने यहां-वहां देखा। सहसा उसके कानों में कुछ स्वर पड़े। उसने ••• जैन चरित्र कोश
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