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का चहुंमुखी विकास हुआ। जीवन के उत्तर-पक्ष में राजा पुरन्दर ने भी गृहवास का परित्याग कर श्रमण धर्म में प्रवेश किया। राजर्षि बनकर वे तप, जप और ध्यान में लीन बन गए। एक बार राजर्षि पुरन्दर अस्थिक ग्राम के बाह्य भाग में ध्यान मुद्रा में लीन थे। संयोग से दस्युराज वज्रभुज उधर आ निकला। ध्यानस्थ राजर्षि को उसने पहचान लिया। उसका क्रोध भड़क उठा और प्रतिशोध की ज्वालाओं से उसका अन्तर्मन जलने लगा। पास ही घास-फूस का विशाल ढेर था। दस्युराज ने मुनि की पूरी देह को घास-फूस से ढाँप दिया और उसमें आग लगा दी। .
ध्यान-मुद्रा में लीन मुनि पुरन्दर का शरीर अग्नि में जलने लगा। परन्तु उनके अन्तर्मानस में क्षमा और तितिक्षा की गंगा-यमुना प्रवाहित हो रही थी। उनके रोम-कूप के सूक्ष्मतम खण्ड में भी दस्युराज के प्रति द्वेष का कंपन तक नहीं उभरा। परम समता में लीन रहकर अंतिम श्वास के साथ कैवल्य को साधकर राजर्षि पुरन्दर मोक्ष में जा विराजे । ___ मुनि की देह को अग्नि में अर्पित कर दस्यु वज्रभुज एक दिशा में भागा और एक अन्धकूप में जा गिरा। मृत्यु का ग्रास बनकर वह नरक में गया।
-धर्मरत्न प्रकरण टीका, गाथा 96
(ख) पुरन्दर
___ अयोध्या का एक सूर्यवंशी राजा। उसने कई वर्षों तक प्रजा का पुत्रवत् पालन किया और अन्तिम वय में प्रव्रज्या धारण कर सद्गति का अधिकार पाया।
-जैन रामायण (ग) पुरन्दर
एक धीर, वीर, परोपकारी, सच्चरित्र और पुण्यात्मा राजकुमार, जो विलासपुर नरेश सिंहरथ का पुत्र था। पुरन्दर जब युवा हुआ तो आठ राजकुमारियों के साथ उसका पाणिग्रहण कराया गया। वह सुखपूर्वक देवदुर्लभ सुखों का उपभोग करता हुआ विचरने लगा। एक बार वसन्तोत्सव के अवसर पर राजकुमार पुरन्दर राजोद्यान में भ्रमण करने गया। उसने वहां एक विद्याधर को बन्धनों में बंधे हुए पड़े देखा। विद्याधर के शरीर से रक्त बह रहा था और वह मरणासन्न वेदना से कराह रहा था। राजकुमार पुरन्दर उसकी दशा देखकर दयार्द्र बन गया। उसने उसे बन्धनों से मुक्त किया और उसके घावों पर संरोहणी जड़ी का लेप किया जिससे विद्याधर को जीवनदान मिल गया। विद्याधर ने पुरन्दर को अपना जीवनदाता मानते हुए उसे प्रणाम किया। पुरन्दर द्वारा पूछने पर विद्याधर ने अपने बन्धनों में बंधे होने तथा घायल होने का कारण बता दिया। उसने अपने दोषों को सरलचित्त से पुरन्दर के समक्ष प्रगट कर दिया कि परस्त्री पर कुदृष्टि रखने से उसकी यह दशा हुई है। पर भविष्य में वह परदारा सहोदर बनकर जीवन जीएगा। विद्याधर ने पुरन्दर को अपने गुरु का पद दिया और गुरुदक्षिणा के रूप में उसे रूपपरावर्तिनी विद्या भेंट कर अपने नगर को चला गया। ___कालान्तर में विलासपुर नगर में जगभूषण मुनि पधारे। पुरन्दर ने मुनि से श्रावक धर्म अंगीकार किया। वह धर्मध्यान-पूर्वक जीवन-यापन करने लगा। एक बार राजकुमार पुरन्दर ने किसी चारण के मुख से भोगपुर नगर की राजकुमारी कलावती के रूप की प्रशंसा सुनी। पुरन्दर पूर्वजन्म के स्नेहवश रूप-गुण श्रवण मात्र से ही कलावती को देखने और उसे पाने के लिए व्यथित हो गया। एक रात्रि में वह बिना किसी को सूचित किए अपने नगर से निकल गया। वन और पर्वतों को लांघता हुआ वह भोगपुर की दिशा में बढ़ा। मार्ग में एक देव ने उसके चारित्र की परीक्षा ली, जिसमें उसने पूर्णांक प्राप्त किए। उस देव ने प्रसन्न होकर पुरन्दर को चिन्तामणि रत्न प्रदान किया। .. जैन चरित्र कोश...
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