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धिराज होना चाहता था । पुण्ययोग से उसे एक गजराज की प्राप्ति हुई । वह गजराज अत्यन्त शुभलक्षणों से सम्पन्न था। निमित्तिज्ञों ने राजा तपन को बताया कि उस हाथी की पीठ पर बैठकर व्यक्ति अजेय हो जाएगा। तपन को अपनी महत्वाकांक्षा फलीभूत बनती प्रतीत हुई। उसने उस हाथी को अपना प्रधान हस्ती बनाया और वह दिग्विजय के लिए चल दिया। उसने अनेक राजाओं को जीत लिया पर उसकी राज्यलिप्सा शान्त नहीं हुई। उसने और आगे के लिए प्रस्थान किया। हाथी को एक खड़िया दिखाई दी और उसने खड़िया को अपनी सूण्ड में लेकर एक श्लोक दीवार पर लिखा, जिसका भावार्थ था, राजन् ! तुम काम-क्रोधादि आत्मशत्रुओं से निरन्तर पराजित बन रहे हो। ऐसे में बाह्य शत्रुओं को जीतना व्यर्थ है । वैसा करने से तुम्हारे पुण्य क्षीण हो रहे हैं।
हाथी के लिखे श्लोक ने तपन की मोह निद्रा तोड़ दी। संयोग से राजा को एक अतिशय ज्ञानी मुनि के दर्शन हुए। राजा के पूछने पर मुनि ने उसे बताया, यह हाथी पूर्वजन्म का तुम्हारा मित्र है और तुम्हारे हित के लिए ही उसने तुम्हें हित शिक्षा दी है। मुनि के वचनों से राजा का वैराग्य प्रबल हो गया। उसने राज-पाट को त्याग दीक्षा धारण कर ली। क्योंकि राजा निःसंतान था, अतः सिंहासन सूना हो गया । तत्कालीन परम्परानुसार प्रधान हस्ती की सूड में पुष्पमाला देकर उसे नए राजा के चुनाव का दायित्व दिया गया। पूरे नगर मे घूमते
हाथी नगर के बाहर पहुंचा। वहां एक वृक्ष के नीचे एक व्यक्ति चादर ओढ़कर सो रहा था। हाथी ने उस पर पुष्पमाला डाल दी। व्यक्ति उठ बैठा। वह पंगु और रुग्ण था । मर्यादानुसार नागरिकों को उसे ही राजा मानना पड़ा। लोगों ने उसे पुण्याढ्य कहकर पुकारा । उसका यही नाम प्रचलित हो गया ।
पुण्याढ्य एक कुशल शासक सिद्ध हुआ । उसके राज्य में लोग सुखी थे और अपने पूर्व नरेश तपन को लगे थे। एक बार राजर्षि तपन पद्मपुर में पधारे। पुण्याढ्य ने मुनि का स्वागत किया । प्रवचनोपरान्त उसने श्रावकधर्म अंगीकार किया। उसने मुनि से पूछा, मुझ पंगु और रुग्ण को राज्य किस पुण्य से मिला ? मुनि ने कहा, पूर्वजन्म में तीन मित्रों ने एक मुनि की उपसर्ग / परीषह से रक्षा की थी। उन तीन मित्रों में एक तुम थे, द्वितीय तुम्हारे प्रधान हस्ती का जीव था और तृतीय मैं था। उसी पुण्य के फलस्वरूप पहले मैं और बाद में तुम राजा बने । प्रधान हस्ती भी मनुष्य जैसी बुद्धि रखता है और राजसुख भोग रहा है। उस भव में मुनि सेवा करते हुए तुम्हारे हृदय में तनिक ग्लानि भाव उभर आया था जिसके फलस्वरूप तुम्हें पंगु और रुग्ण बनना पड़ा। किन्हीं अन्य प्रसंगों पर माया का सेवन करने पर तृतीय मित्र को पशु रूप में जन्म लेना
पड़ा ।
अपना पूर्वभव सुनकर पुण्याढ्य की धर्मरुचि प्रबल से प्रबलतर होती चली गई । कालान्तर में हाथ बीमार हो गया । अन्तिम समय में पुण्याढ्य ने हाथी को नवकार मंत्र सुनाया। समभावपूर्वक देहत्याग कर हाथी देवता बना। उस देवता ने देवलोक के कल्पवृक्ष का एक फल लाकर पुण्याढ्य को भेंट किया जिसे खाकर पुण्याढ्य सर्वांग स्वस्थ बन गया । कालान्तर में पुण्याढ्य ने दीक्षा धारण की और निरतिचार संयम की आराधना कर परम पद-मोक्ष प्राप्त किया। - पुण्याढ्य रास (समयसुन्दरगणि) / (वासुपूज्य चरित्र )
पुद्गल परिव्राजक
आलंभिका नगरी का रहने वला एक तपस्वी परिव्राजक, जिसने उग्र- अज्ञान तप से विभंग ज्ञान प्राप्त किया था। विभंगज्ञान में उसने जगत को जहां तक देखा, उसी को सम्पूर्ण और अंतिम मानकर वह प्ररूपणा करने लगा। एक बार पुण्योदय से उसे भगवान महावीर से साक्षात्कार का अवसर प्राप्त हुआ। भगवान ने उसे उसके सीमित ज्ञान के बारे में बताया और सत्य का सम्यक् बोध उसे प्रदान किया। पुद्गल ने कई प्रश्न
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