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खोला तो दुर्गन्ध से उसका मन ग्लानि से भर गया। कुपित होकर उसने वह पात्र एक प्रस्तर शिला पर पटक दिया। आचार्य श्री के प्रस्रवण के स्पर्श होते ही वह विशालकाय शिला स्वर्ण बन गई।
___ इस दृश्य को देखकर नागार्जुन आश्चर्याभिभूत हो उठा। उसे आज तक का अपना सारा श्रम व्यर्थ प्रतीत होने लगा। वह आचार्य पादलिप्त के पास पहुंचा और उनके चरणों में उसने स्वयं को अर्पित कर दिया। कुछ समय तक वह आचार्य श्री के साथ सेवक की भांति रहा। बाद में उसने आचार्य पादलिप्त का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया। आचार्य श्री के गुरु-गम्भीर ज्ञान और नानाविध विद्याओं को धारण कर नागार्जुन भी एक सुयोग्य श्रमण बन गए।
आचार्य पादलिप्त अपने युग के विश्रुत और पूजित आचार्य थे। वे जहां भी विचरे, उनका धवल यश चतुर्दिक् फैलता रहा। वे अद्भुत कवि भी थे। उस युग के बड़े-बड़े कवि आचार्य पादलिप्त की काव्य कला से अभिभूत थे।
आर्य नागार्जुन की प्रेरणा से शत्रुञ्जय पर्वत की तलहटी में बसे नगर का नाम पादलिप्तपुर रखा गया, जो वर्तमान में पालिताणा नाम से विश्रुत है।
-प्रभावक चरित्र/ पुरातन प्रबन्ध संग्रह पारसनाथ
तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का अपरनाम। (विशेष परिचय के लिए देखिए-पार्श्वनाथ तीर्थंकर) पाराशर
प्राचीन कालीन एक समृद्ध किसान। (देखिए-ढंढण मुनि) पार्श्वनाथ (तीर्थंकर)
तेईसवें तीर्थंकर । स्वर्ग से च्यव कर प्रभु के जीव ने वाराणसी नरेश अश्वसेन की महारानी वामादेवी की रत्नकुक्षी से पौष कृष्ण दसवीं को जन्म लिया। युवा हुए। वे परम सुरूप और शक्तिशाली थे। एक बार पितृ-मित्र कुशस्थल नरेश प्रसन्नजित पर जब किसी अनार्य राजा ने आक्रमण किया तो पार्श्वनाथ ने पिता की आज्ञा से अनार्य राजा का मानभंग कर कुशस्थल नरेश की रक्षा की। कुशस्थल की राजकुमारी प्रभावती का विवाह पार्श्वकुमार से हुआ।
पार्श्वकुमार को आडम्बर और अज्ञान तप पसन्द न था। वे अहिंसा और करुणा के अग्रदूत महापुरुष थे। जब कमठ नामक तापस ने पंचाग्नि तप से पूरे वाराणसी नगर को प्रभावित बना लिया तो पार्श्वकुमार ने तप के तले सुलग रही हिंसा का दर्शन लोगों को कराया। पंचाग्नि में जल रहे एक बड़े लक्कड़ को अग्नि से बाहर निकालकर चिरवाया तो उसमें से आधे जल चुके नाग-दम्पती बाहर निकले। इससे तापस की प्रतिष्ठा गिर गई और पार्श्व की अहिंसा और दूरदर्शिता का यशगान मुख-मुख पर फैल गया। पार्श्व ने नमस्कार मंत्र से सर्पयुगल को सम्बोधि-समता का सूत्र दिया। सर्पयुगल देहोत्सर्ग कर धरणेन्द्र और पद्मावती के रूप में जन्मे। ___पार्श्वकुमार ने तीस वर्ष की अवस्था में प्रव्रज्या धारण की। तप और ध्यान द्वारा कैवल्य को साधने लगे। उधर कमठ अज्ञान तप में जीवन बिताकर मरा और मेघमाली नामक भवनपति देव बना। उसने प्रभु को ध्यानस्थ देखा तो उसका वैर-भाव जाग उठा। उसने प्रभु को अनेकविध उपसर्ग दिए। पर जब वह किसी भी भांति प्रभु को चलित करने में सफल नहीं हुआ तो उसने मेघ की विक्रिया रच मूसलाधार वर्षा शुरू कर दी। जल-थल एकाकार हो गए। प्रभु की नासिका तक जल आ गया। तब धरणेन्द्र का आसन प्रकम्पित हो ... 332 -
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