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आचार्य धनेश्वर सूरि के अनेक शिष्य थे। उन्होंने अपने 18 विद्वान शिष्यों की आचार्य पाट पर नियुक्ति की, जिनसे 18 शाखाएं प्रचलित हुईं।
राजगच्छ में आचार्य धनेश्वर सूरि की पट्टपरम्परा में आचार्य अजित सिंह सूरि, और उनके पश्चात् आचार्य वर्द्धमान सूरि जैसे प्रख्यात विद्वान जैन आचार्य हुए।
धन्नाशाह
रणकपुर के आदिनाथ भगवान के अद्वितीय कलात्मक मंदिर का निर्माण श्रेष्ठिवर्य धन्नाशाह ने कराया था । धन्नाशाह चितौड़ के महाराणा कुम्भा के प्रियपात्र थे । महाराणा कुम्भा ने भी इस मन्दिर निर्माण में राजकोष से 12 लाख स्वर्णमुद्राएं दानस्वरूप दी थीं। 1444 स्तंभों पर निर्मित इस अतिभव्य जिनालय के निर्माण में 90 लाख स्वर्णमुद्राओं का व्यय हुआ, जिसका वहन धन्नाशाह ने किया । धन्नाशाह के जीवनकाल में मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण नहीं हो पाया। उनके पुत्र रत्नाशाह ने इसे पूरा किया। यह 65 वर्ष में बनकर पूर्ण हुआ ।
धन्नाशाह परमजिनभक्त श्रावक थे। जैन धर्म और जिनभक्ति की सुरभि से उनका जीवन सुरभित
था ।
(क) धन्ना सार्थवाह
जम्बूद्वीप के अपर महाविदेह के नगर क्षितिप्रतिष्ठ का रहने वाला एक सरल परिणामी और धनाढ्य सार्थवाह। एक बार उसने हजारों लोगों के सार्थ के साथ वसन्तपुर नगर में व्यापार करने के लिए प्रस्थान किया। वसन्तपुर का मार्ग लम्बा और विकट था । धन्ना की अनुमति प्राप्त कर जैनाचार्य धर्मघोष ने भी अपनी शिष्यमण्डली सहित सार्थ के साथ-साथ वसन्तपुर के लिए विहार किया। मार्ग में धन्ना सार्थवाह शुद्ध व प्रासुक आहार- पानी मुनिमण्डल को बहराता और मन में प्रसन्नता का अनुभव करता । इस प्रकार उसकी मनोभूमि उर्वर बन गई ।
मार्ग लम्बा था। मध्यमार्ग में ही वर्षाऋतु प्रारंभ हो गई। वर्षाऋतु में यात्रा को जारी रखना संभव नहीं था। धन्ना ने उचित स्थान देखकर वर्षा के चार मास वहीं बिताने के लिए सार्थ में घोषणा करा दी। निकट ही एक पर्वत गुफा में मुनिमण्डल भी ठहर गया ।
वर्षा का वेग प्रतिदिन बढ़ता गया । वर्षा का यह क्रम काफी लम्बा चला। सार्थ के पास जो खाद्य सामग्री थी, वह भी अल्प मात्रा में शेष रह गई। लोग फल-फूल खाकर उदर-पोषण करने लगे ।
एक दिन आत्मचिन्तन में रत धन्ना को मुनिमण्डल का ध्यान आया। वह एकाएक सहम गया कि उसने मुनियों के आहार -पानी का ध्यान ही नहीं रखा। वह मुनियों के निवास का पता लगाकर पर्वतगुफा में पहुंचा और हार्दिक खेद प्रगट करते हुए अपनी भूल के लिए उसने मुनियों से क्षमा मांगी। आचार्य धर्मघोष
धन्ना को आश्वस्त किया और फरमाया, मुनि आहार प्राप्ति पर अनासक्त चित्त से उसे ग्रहण करता है और न मिलने पर तपस्या का सुअवसर जानकर आनन्दित बनता है। वह प्रत्येक स्थिति में आनन्दित रहता - है ।
धन्ना ने आचार्य श्री से आहार के लिए प्रार्थना की। आचार्य श्री धन्ना के कुटीर पर पधारे। संयोग से उस समय घी के अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ कल्पनीय नहीं था । भावों से भरे हृदय से धन्ना ने आचार्य श्री को घी का दान दिया। उस समय धन्ना के भाव इतने उत्कृष्ट थे कि उसकी आत्मा में सम्यक्त्व का प्रथम ••• जैन चरित्र कोश -
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