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जीवयशा
जरासंध की वह पुत्री, जिसका विवाह कंस से हुआ था। वह एक अभिमानिनी और मदिरापायी नारी थी। मदिरा के नशे में उस द्वारा किए गए उपहास से ही रुष्ट होकर अतिमुक्तक मुनि के मुख से भविष्य प्रकट हुआ तथा देवकी और वसुदेव को सुदीर्घ कारावास भोगना पड़ा था। जीवराज जी (आचार्य) ___एक क्रियोद्धारक जैन मुनि। उनका जन्म गुजरात प्रदेश के सूरत शहर में वी.नि. सं. 2051 (वि.सं. 1581) में हुआ था। उनके पिता का नाम वीर जी और माता का नाम केशरबाई था। ___जीवराज जी बाल्यावस्था से ही अध्ययनशील थे। यतियों से उन्होंने जैन ग्रन्थों का अध्ययन किया और वैराग्य भाव को प्राप्त होकर दीक्षा धारण की। उनकी आगमनिष्ठा उत्कृष्ट थी। आगम-विरुद्ध यति वर्ग का आचार देखकर उनका मन खिन्न हो गया। उन्होंने अपने दीक्षागुरु जगा जी यति से क्रियोद्धार के लिए निवेदन किया। परन्तु वृद्ध यति जी ने उसके लिए अपनी असमर्थता व्यक्त की। साथ ही उन्होंने क्रियोद्धार के लिए जीवराज जी को अपना आशीर्वाद प्रदान किया।
वी.नि. 2078 (वि. 1608) में जीवराज जी ने अपने पांच साथी मुनियों के साथ क्रियोद्धार के लिए भीष्म संकल्प किया। उन्होंने पंच महाव्रत रूप दीक्षा धारण की। अल्प वस्त्र, अल्प पात्र, मुखपत्ती, रजोहरण, प्रमार्जिका-ये उपकरण साधु के लिए ग्राह्य रखे। ससूत्र मुखवस्त्रिका बांधने का विधान किया। 11 अंग, 12 उपांग, 4 मूल, 4 छेद और 1 आवश्यक सूत्र-इन 32 आगमों को प्रामाणिक स्वीकार किया। ___ लोकाशाह की धर्मक्रान्ति को जीवराज जी ने विस्तारित किया। यतिवर्ग की ओर से उनका तीव्र विरोध हुआ। पर उनकी धर्मनिष्ठा और संकल्प वज्रोपम था। उनके तपो-त्यागमय जीवन का जनता पर विशेष प्रभाव पड़ा और उनके श्रावकों व भक्तों की संख्या वृद्धि पाती गई।
वर्तमान में श्वेताम्बर स्थानकवासी सम्प्रदाय का जो वेशविन्यास और आचार-व्यवहार है, वह आचार्य जीवराज जी से ही निःसृत हुआ है। आचार्य जीवराज जी का स्वर्गारोहण अनशन व समाधिपूर्वक हुआ। जीवानंद वैद्य ___ जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र के क्षितिप्रतिष्ठ नगर में रहने वाले सुविधि नामक वैद्य का एक सुयोग्य पुत्र । जीवानंद बाल्यकाल से ही सुसंस्कारी बालक था। पूर्वजन्म के सद्संस्कारों का अमृतकोश साथ लेकर वह जन्मा था। करुणा, धर्मनिष्ठा, परोपकार-वृत्ति आदि सद्गुण उसके स्वभाव में रचे-बसे थे। पिता के सान्निध्य में उसने वैद्यक-विद्या का सांगोपांग अध्ययन किया और वह युवावस्था तक पहुंचते-पहुंचते एक कुशल और विख्यात वैद्य बन गया। नगर नरेश पुत्र महीधर, मंत्रीपुत्र सुबुद्धि, सार्थवाह पुत्र पूर्णभद्र, श्रेष्ठीपुत्र गुणाकर और केशव-ये पांच युवक जीवानंद के अन्तरंग मित्र थे। छहों युवक प्रायः साथ-साथ रहते और आमोद-प्रमोदपूर्वक जीवन व्यतीत करते थे।
किसी समय छहों मित्रों ने कृमिकुष्ठ रोग से ग्रस्त एक तपस्वी श्रमण को देखा। मुनि की रुग्णावस्था पर छहों मित्रों के हृदय दयार्द्र हो उठे। जीवानंद ने कहा, मुनिवर का उपचार तो मैं कर सकता हूँ पर उसके लिए पूरे साधन मेरे पास नहीं हैं। राजपुत्र ने कहा, मित्र ! तुम साधनों की चिन्ता मत करो, जो भी वस्तुएं अपेक्षित हैं, बताओ, हम शीघ्र ही उनका प्रबन्ध कर देंगे। जीवानंद ने कहा, मुनिवर के उपचार के लिए ..218 ..
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