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पर विवश कर दिया। इस बात से प्रभावित होकर विजयपुर नरेश चंद्रसेन ने अपनी पुत्री मदनमालती का विवाह जिनसेन से कर दिया। एक अन्य कन्या-चम्पानगरी की राजकुमारी चंपकमाला से भी जिनसेन ने विवाह किया।
निरन्तर वर्धमान जिनसेन की सुख्याति से रत्नवती की ईर्ष्या भी निरन्तर वर्धमान बनती चली गई। उसने एक बार जिनसेन को विषमोदक खिला कर मारना चाहा। पर जिसका आयुष्य बल शेष हो उसे कोई भला कैसे मार सकता है ! जिनसेन ने अपनी विमाता की मानसिक शान्ति के लिए देशाटन का संकल्प कर लिया। माता-पिता की आज्ञा लेकर उसने देशाटन के लिए प्रस्थान किया। सिंहलद्वीप के राजा के पास उसने नौकरी की और अपने शौर्य बल से कई बार राजा के प्राणों की रक्षा की। जिनसेन के सहयोग से सिंहलद्वीप अनेक कठिनाइयों से मुक्त हुआ।
जिनसेन ने एक आदर्श जीवन जीया। उसने सदैव अपने प्राणों पर अपने धर्म को अधिमान दिया। अपने जीवन काल में उसने कई ऐसे शौर्यपूर्ण कार्य किए कि साधारण व्यक्ति से उनकी कल्पना नहीं की जा सकती है। अंततः कनकपुर की जनता और पिता के आग्रह भरे निमंत्रण पर उसने वहां का राजपद स्वीकार किया। उसी अवधि में उसने एक और विवाह किया। उसने सुदीर्घकाल तक शासन किया और प्रजा का पुत्रवत् पालन किया। अंतिम अवस्था में उसने अपने पुत्र को राज्य प्रदान किया और अपनी तीनों रानियों के साथ आर्हती दीक्षा अंगीकार की। उच्च संयम का पालन कर देहोत्सर्ग कर वह देवगति में गया। वहां से च्यव कर, मनुष्य भव धारण कर वह निर्वाण प्राप्त करेगा। (ख) जिनसेन (आचार्य)
वी.नि. की चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के एक मनीषी जैन आचार्य । आचार्य जिनसेन आचार्य वीरसेन के शिष्य थे। अपने गुरु की भांति वे भी उद्भट विद्वान और साहित्य साधक आचार्य थे। आचार्य वीरसेन के अधूरे टीकाग्रन्थ जयधवला को उन्होंने पूर्ण किया। उसके अतिरिक्त 'पाश्र्वाभ्युदय' तथा 'आदिपुराण' नामक बृहद् ग्रन्थों की उन्होंने रचना की। आदिपुराण-उत्तरपुराण ग्रन्थ में चौबीस तीर्थंकरों के जीवन वृत्तों का अंकन है। यह ग्रन्थ महाकाव्य की कोटि का ग्रन्थ माना जाता है। ___ आचार्य जिनसेन तेजस्वी, वर्चस्वी और यशस्वी आचार्य थे। वे अखण्ड ब्रह्मचर्य के धारक, विनीत और विद्वान आचार्य थे। राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष पर उनका अच्छा प्रभाव था।
-जयधवला प्रशस्ति / उत्तर पुराण प्रशस्ति जिनेश्वर सूरि (आचार्य)
श्वेताम्बर जैन परम्परा के सुविहितमार्गी एक प्रख्यात जैन आचार्य। उनके गुरु का नाम वर्धमान सूरि था, जो बड़गच्छ के उद्योतन सूरि के शिष्य थे।
जिनेश्वर सूरि का गृहवास में श्रीधर नाम था। उनका एक भाई था, जिसका नाम श्रीपति था। जन्मना वे ब्राह्मण थे। बचपन से ही अध्ययन रुचि के कारण युगल बन्धु यौवन द्वार तक पहुंचते-पहुंचते वैदिक शास्त्रों के विद्वान बन गए। युगल बन्धुओं की स्मृति प्रखर थी। वे एक बार जिस बात को सुन अथवा पढ़ लेते, उसे भूलते नहीं थे। विद्या निष्णात युगलबन्धु देश-देशान्तर में भ्रमण करते हुए धारा नगरी पहुंचे। उस समय धारा नगरी में राजा भोज का शासन था। नगरी में कोटीश्वर श्रेष्ठी लक्ष्मीधर रहता था। युगलबन्धु कई बार भोजन के लिए लक्ष्मीधर के घर आए। लक्ष्मीधर ने करोड़ों रुपए के लेन-देन का ब्यौरा अपने घर - जैन चरित्र कोश..
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