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हुआ। उसने घोषणा की, अग्रज जिनदत्त का कथन युक्तियुक्त है। अब मैं उस पथ पर बढ़ने को कृत्संकल्प हूं, जिस पर बढ़कर व्यक्ति सच्चे अर्थों में योद्धा बनता है। मैं आत्मजय के लिए प्रव्रज्या धारण करूंगा।
पिता, माता, परिजनों और पुरजनों ने अनेकानेक तर्क उपस्थित कर जितशत्रु को संसार में रोकना चाहा, पर उसके संकल्प के समक्ष समस्त बाधाएं-समस्त तर्क कुन्द पड़ गए। जितशत्रु प्रव्रजित हो गए और आत्मजय प्राप्त कर सच में 'जितशत्रु' बन गए। केवलज्ञान प्राप्त कर जितशत्रु मोक्ष में जा विराजे।
-बृहत्कथा कोष, भाग-1 (आ. हरिषेण) (ख) जितशत्रु
चम्पानगरी का युवा नरेश। उसने सुकुमालिका नामक एक राजकुमारी से विवाह किया जो अद्वितीय सुंदरी और सुकोमल शरीर वाली थी। राजा रानी पर इस कदर आसक्त हुआ कि राजकाज को ही भूल बैठा। राजा काम में सो गया तो प्रजा में अनैतिकता, अनाचार और अपराधों की बाढ़ आ गई। मंत्रिमण्डल ने राजा को पुनः पुनः उसके राजधर्म के प्रति सचेत किया, पर राजा सुकुमालिका में ऐसा अनुरक्त था कि अंतःपुर से बाहर कदम नहीं रखता था। आखिर मंत्रिमण्डल ने एक कठोर निर्णय लिया और उस निर्णय के अनुसार निद्राधीन राजा व रानी को पलंग सहित गहन जंगल में छोड़ दिया गया। युवराज को राजपद पर अधिष्ठित कर दिया गया।
प्रभात हुई तो राजा और रानी ने स्वयं को जंगल में पाया। दोनों हत्प्रभ और दुखी हुए। जितशत्रु भले ही रागान्ध बना था पर उसे यह समझ अवश्य थी कि मंत्रिमण्डल ने उसे उचित ही सजा दी है। प्राप्त सजा को विधि का आलेख मानकर जितशत्रु ने मेहनत मजदूरी द्वारा उदरपोषण करने का निश्चय किया।
जंगल सुविशाल था। दोनों चले। मार्ग में सुकुमालिका को प्यास लगी। जितशत्रु ने दूर-दूर तक जल की तलाश की, पर कहीं जल न मिला। जितशत्रु सुकुमालिका को प्यास से तड़पते हुए नहीं देख सका। उसने अपना शरीर चीरकर अपने रक्त से सुकुमालिका की प्यास बुझाई और अपनी जंघा के मांस से उसकी क्षुधा को शान्त किया। सुकुमालिका ने बिना झिझके पति के रक्त और मांस का आहार किया। इस पर भी जितशत्रु के राग में कहीं न्यूनता न आई। आखिर दोनों एक नगर में पहुंचे। एक छोटा सा मकान किराए पर लेकर रहने लगे। जितशत्रु को एक सेठ के यहां नौकरी मिल गई। उदर-पोषण ठीक चलने लगा।
__ एक दिन सुकुमालिका ने जितशत्रु से कहा, आप तो दिनभर मुझसे दूर रहते है! मुझ अकेली का समय काटे नहीं कटता है। मेरे लिए किसी मनोरंजन का प्रबन्ध कर दीजिए! जितशत्रु ने वैसा करने का आश्वासन दिया। नौकरी से लौटते हुए जितशत्रु ने एक पंगु गवैये को गाते देखा। उसे वह मनोरंजन का उचित साधन प्रतीत हुआ और उसे अपने साथ ले आया। जितशत्रु की अनुपस्थिति में पंगु भजन गाकर सुकुमालिका का मनोरंजन करने लगा। निरंतर सामीप्य अनुराग में शीघ्र ही परिवर्तित हो गया। सुकुमालिका पंगु के साथ स्वच्छन्द जीवन जीने लगी। पंगु और सुकुमालिका का पारस्परिक आकर्षण ऐसा बढ़ा कि उन्हें जितशत्रु राह का कांटा दिखाई देने लगा। आखिर सुकुमालिका ने एक दिन उस कांटे को राह से हटाने का निर्णय कर लिया।
एक दिन जब जितशत्रु अवकाश पर था तो सुकुमालिका ने उससे दरिया तट पर घूमने का आग्रह किया। बरसात की ऋत थी और दरिया उफान पर था। उचित अवसर पाकर सकमालिका ने जितशत्र को दरिया में धक्का दे दिया। दरिया में गिरते-गिरते जितशत्रु की आंखों के समक्ष त्रियाचरित्र का नग्न दुष्टपक्ष ... जैन चरित्र कोश ..
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