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उधर प्रभव नामक कुख्यात चोर-सरदार को ज्ञात हो गया कि ऋषभदत्त के पुत्र के विवाह में दहेज स्वरूप विपुल द्रव्य आया है। प्रभव के पास दो विद्याएं थीं, अवस्वापिनी और तालोद्घाटिनी। वह अपने पांच सौ साथियों के साथ आया और अवस्वापिनी विद्या से उसने पूरे नगर को निद्राधीन बना दिया। उसके साथियों ने ऋषभदत्त के घर में घुसकर धन की गठड़ियां बांध लीं। पर जैसे ही वे चलने लगे उनके पैर जमीन से चिपक गए। इससे प्रभव घबरा गया। उसी समय उसके कानों में कुछ स्वर पड़े। उसने कक्ष के निकट जाकर गवाक्ष से देखा तो अन्दर चल रहे संवाद और दृश्य को सुन/ देखकर उसका हृदय आत्मग्लानि से भर गया। उसने मन ही मन जंबूकुमार के महान त्याग की प्रशंसा की और स्वयं उसका अनुगामी बनने का संकल्प कर लिया।
जंबूकुमार को दीक्षित होने से रोकने के लिए उसकी आठों पत्नियों ने एक-एक दृष्टान्त कहा। जंबू ने उनके दृष्टान्तों के प्रत्युत्तर में एक-एक दृष्टान्त कहकर न केवल उन्हें निरुत्तर कर दिया बल्कि उन्हें अपने साथ दीक्षित होने के लिए भी तैयार कर लिया।
उधर प्रभव भी जंबू के चरणों में गिर गया। पश्चात्ताप के आंसुओं से अपने पापों को प्रक्षालित करते हुए उसने भी दीक्षित होने का संकल्प किया। फिर उसने अपने साथियों को भी इसके लिए प्रेरित किया। पांच सौ चोरों के संकल्प भी सम्यक् बन गए, उन्होंने भी अपने सरदार का अनुगमन करने का निश्चय कर लिया। ऐसा निश्चय करते ही वे स्तंभन से मुक्त हो गए।
दूसरे दिन वैराग्य का जो महानद बहा, उसमें एक साथ पांच सौ अट्ठाईस लोगों ने गोते लगाए। वे पांच सौ अट्ठाईस लोग थे-जंबूकुमार और उनके माता-पिता, उनकी आठ पत्नियां और उन आठों के माता-पिता तथा प्रभव और उसके पांच सौ साथी।
जंबूकुमार ने सोलह वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली, छतीस वर्ष की अवस्था में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ और अस्सी वर्ष की अवस्था में वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए। (देखिए-प्रभव)
-त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र परिशिष्ट पर्व जगडूशाह
वी.नि. की अठारहवीं सदी का एक सुविख्यात दानवीर श्रेष्ठी। उसका जन्म भद्रेश्वर नगर में हुआ था। उसका विशाल व्यवसाय प्रामाणिकता के आधार पर अति विस्तार को प्राप्त कर गया था। एक बार उसने ज्योतिषविद्या के पारंगत एक जैनाचार्य के मुख से सुना कि वी.नि. 1785 से वी.नि. 1787 की अवधि में भीषण देशव्यापी अकाल पड़ने वाला है। आचार्य श्री के इस भविष्य कथन को सुनकर जगडूशाह ने अपने कर्तव्य को पहचाना। उसने देश के कोने-कोने में फैले अपने व्यवसाय को संभालने वाले मुनीमों को निर्देश दिया कि प्रभूत मात्रा में धान्यों का संग्रह किया जाए। उसके निर्देश पर उसके मुनीमों ने देश के कोने
कोने-कोने में धान्यों के हजारों गोदामों की व्यवस्था की। कालक्रम से आचार्य श्री का कथन अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ। देशव्यापी अकाल पड़ा और प्रजा में अन्न का अभाव हो गया। उस समय दानवीर जगडूशाह ने देशभर में भोजनशालाएं खुलवा दीं। निरन्तर तीन वर्षों तक उसने भोजनशालाएं चलाईं और बिना किसी जातीय भेदभाव के उसने भोजन दान दिया। भीषण दुष्काल में भी प्रजा ने अन्नाभाव महसूस नहीं किया। ___ जगडूशाह की दानवीरता के अनेक कहानी-किस्से किंवदन्तियों के रूप में देशभर में आज भी सुने-सुनाए जाते हैं। एक अनुश्रुति के अनुसार एक देव ने जगडूशाह को पारस पत्थर की सूचना देकर उसकी सम्पन्नता ... जैन चरित्र कोश ..
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