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________________ वितृष्णा के भाव पैदा हो गए। वह अपने बच्चों के साथ अग्नि में जल मरी। बाद में तुम वहां पहुंचे और पत्नी तथा पुत्रों को जलते देखकर तुमने भी अग्नि में कूदकर प्राण त्याग दिए। वहां से आयुष्य पूर्ण कर हंसिनी राजकुमारी पद्मावती बनी है और हंस प्राण त्याग कर तुम्हारे रूप में उत्पन्न हुआ है। अपना पूर्वजन्म सुनकर चित्रसेन का अनुराग भाव शतगुणित हो गया । वह अपने मित्र रत्नसार के साथ पद्मपुर नगर में पहुंचा। उसने हंस-हंसिनी के पूर्वजन्म को स्पष्ट करने वाले तीन चित्र बनाए और किसी तरह राजकुमारी तक पहुंचा दिए । अद्भुत चित्रों को देखकर पद्मावती को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। परिणामतः वह भी अपने पूर्वजन्म के पति से मिलने के लिए लालायित हो गई । रत्नसार राजकुमारी से मिला और उसे स्वयंवर आयोजित करने के लिए योजना समझाई। आखिर राजकुमारी का स्वयंवर आयोजित किया गया। अंतःप्ररेणा से ही साधारण वेश में उपस्थित चित्रसेन को राजकुमारी ने पहचान लिया और उसके गले में वरमाला डाल दी । उपस्थित राजाओं और राजकुमारों ने इस बात का विरोध किया कि राजकुमारी ने एक साधारण युवक को वर रूप में चुनकर उनका अपमान किया है। इस पर रत्नसार ने चित्रसेन का राजकुमार रूप में परिचय दिया तो सभी ने मौन साध लिया । कुछ दिन पद्मपुर में बिताकर चित्रसेन और रत्नसार पद्मावती के साथ अपने नगर में लौट आए । पिता के बाद चित्रसेन राजा बना। उसने न्यायनीतिपूर्वक प्रजा का पालन किया और अंतिम वय में पद्मावती के साथ प्रव्रजित होकर देवलोकगमन किया। कालक्रम से वे दोनों मोक्ष में जाएंगे। - चित्रसेन - पद्मावती चरित्र चित्रसेना कनकावती नगर की राजकुमारी और वच्छराज की परिणीता। (देखिए-हंसराज) (क) चित्रांगद एक वृद्ध चित्रकार । ( देखिए- कनकमंजरी) (ख) चित्रांगद महाराज शान्तनु का रानी सत्यवती से उत्पन्न पुत्र । ( देखिए-सत्यवती) चिलातीपुत्र राजगृह निवासी धन्ना सार्थवाह के घर में काम करने वाली चिलाती नामक दासी का पुत्र । जब वह बारह-तेरह वर्ष का हुआ तो सेठ ने अपनी अल्पवयस्का पुत्री सुषमा को खिलाने और खेलने का कार्यभार उसे सौंप दिया। सुषमा और चिलातीपुत्र का पारस्परिक अनुराग प्रगाढ़ हो गया । चिलातीपुत्र दुर्व्यसनी होने के कारण अवसर पाकर सुषमा से कुचेष्टाएं भी कर देता था । सेठ द्वारा देख लिए जाने पर चिलातीपुत्र को डांट-फटकारकर घर से निकाल दिया गया। यहां-वहां भटकता हुआ वह राजगृह के बाहर सिंहपल्ली नामक चोरों की पल्ली में पहुंच गया। पल्ली का स्वामी विजय नामक चोर पांच सौ चोरों का सरदार था और उसका अपना इकलौता पुत्र मर चुका था। उसने चिलातीपुत्र को अपना पुत्र बना लिया और समस्त चौर्य कलाओं में शीघ्र ही उसे सिद्धहस्त बना दिया। विजय चोर की मृत्यु के पश्चात् चिलातीपुत्र चोरों का सरदार बन गया। वह विजय चोर से भी बड़ा चोर बना । शीघ्र ही उसका आतंक मगध प्रदेश में व्याप्त हो गया। एक बार उसे सुषमा की स्मृति हो आई । उसने चोरों को बुलाकर हिदायत दी कि रात्रि में राजगृहवासी • जैन चरित्र कोश ••• *** 178
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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