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चंडकौशिक
एक अति भयानक और दृष्टि विष सर्प। जहां वह रहता था, वहां दूर-दूर तक के वृक्ष भी उसकी विषदृष्टि से जल गए थे। वह मार्ग और क्षेत्र जनशून्य और पशु-पक्षियों से रहित हो गया था। उसकी विषकथा पूर्वजन्मों से प्रारंभ हुई थी, जिसका विवरण इस प्रकार है___एक गुरु और शिष्य विहार कर रहे थे। अनजाने में एक मेंढ़की गुरु के पैर के नीचे दबकर मर गई। शिष्य ने गुरु से आलोचना करने को कहा। गुरु ने शिष्य की बात अनसुनी कर दी। नियत स्थान पर पहुंचकर शिष्य ने पुनः गुरु को आलोचना करने के लिए कहा। गुरु को शिष्य की टोकाटाकी बहुत बुरी लगी। उसे क्रोध तो बहुत आया पर उसने कोई उत्तर न दिया। संध्या प्रतिक्रमण के समय शिष्य ने गुरु को पुनः प्रायश्चित्त करने की बात कह दी। गुरु का क्रोध उफन पड़ा। वह शिष्य को मारने दौड़ा। शिष्य ने एक ओर होकर आत्म बचाव कर लिया। अन्धेरा होने के कारण गुरु एक खम्भे से टकरा गया। सिर में गहरी चोट लगी। जिससे उसकी मृत्यु हो गई। मरकर वह ज्योतिषी देवों में उत्पन्न हुआ। वहां से च्यव कर कनखल के आश्रम के कुलपति के पुत्ररूप में पैदा हुआ। वहां उसका नाम कौशिक रखा गया। पिता की मृत्यु के पश्चात् कौशिक कुलपति बना। वह अति क्रोधी था। इसलिए लोग उसे चंडकौशिक कहने लगे। उसे अपने आश्रम और उपवन से विशेष मोह था। वह वहां से किसी को एक फूल अथवा पत्ता तक नहीं तोड़ने देता था। कोई "तोड़ता तो उसके पीछे वह डण्डा लेकर दौड़ता था। किसी समय कुछ बच्चों ने कौशिक की आंख बचाकर उसके उपवन से फूल तोड़ लिए। कौशिक को ज्ञात हुआ तो वह क्रोध से अन्धा बन गया और फरसा लेकर बालकों को मारने दौड़ा। बालक भाग गए। क्रोध से अन्धा बना कौशिक एक गड्ढे में गिर गया। उसका फरसा उसी के सिर में लगा, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। क्रोध में उबलते हुए मृत्यु को प्राप्त होने के कारण वह मरकर अपने ही उपवन में सांप बना। इतना भयंकर सांप बना कि उसके नेत्रों से अग्नि ज्वालाएं फूटती रहती थीं। जिस पशु-पक्षी अथवा मनुष्य पर वह दृष्टि डाल देता था, वह तत्क्षण भस्म हो जाता था। परिणामतः चंडकौशिक के क्रोध-विष से वह क्षेत्र जीवमात्र से शून्य बन गया। ___अन्ततः अन्तिम तीर्थंकर महावीर ने अपने साधनाकाल में चंडकौशिक को प्रतिबोध दिया। क्रोध से प्रारम्भ हुई उसकी पतनकथा उसे सुनाकर प्रतिबोधित किया। चंडकौशिक को ज्ञान की आंख मिली। उसने महावीर की साक्षी से ग्यारह श्रावक व्रत अंगीकार किए और अपने मुंह को बिल में रखकर निश्चेष्ट हो लेट गया।
सर्प के परिवर्तन की कथा आस-पास गांवों में फैल गई। अन्धविश्वासी लोग उस पर घृत-गुड़ चढ़ाने लगे। गन्ध से आकृष्ट बनी चींटियां सर्प के शरीर को चूंटने लगीं। चंडकौशिक को असह्य वेदना हुई। पर वह उसे समभाव से सहता रहा। देह छलनी हो चुकी थी। सर्प मृत्यु को प्राप्त हो गया। मरकर वह देव बना। भविष्य में मानव देह पाकर वह सिद्ध होगा। .... 156 .00
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