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गर्गाचार्य अस्वस्थ हो गए। किसी भी शिष्य ने उनकी सेवा नहीं की । आचार्य कोई काम कहते तो शिष्य टालमटोल कर देते । शास्त्राध्ययन कराते तो शिष्य उसमें मन न लगाते। इन सब बातों से गर्गाचार्य को बड़ी समाधि होती । एक दिन उन्होंने अपने मन को दृढ़ किया और सभी शिष्यों को छोड़कर एकलविहारी हो गए। संयम की विशुद्ध आराधना करते हुए उन्होंने केवलज्ञान पाया और मोक्ष में गए। (क) गर्दभाली ( परिव्राजक )
वैदिक परम्परा का सफल संवाहक महावीरकालीन एक परिव्राजक । ( देखिए-स्कंदक) (ख) गर्दभाली (मुनि)
उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार गर्दभाली एक महान आचार्य थे। किसी समय वे पांचाल देश के कांपिल्यपुर नगर के केशर उद्यान में ध्यानमग्न थे। उधर संयति अथवा संजय राजा शिकार के लिए आया। उसने हिरणों
बाणों से बींधना शुरू कर दिया। एक घायल हिरण दौड़ता हुआ गर्दभाली के निकट आकर गिरा। मृगानुगामी राजा वहां पहुंचा। मृग को मुनि के निकट देखकर उसने सोचा- हो न हो, यह मृग मुनि का है ! अगर मुनि क्रोधित हो गए तो उसे उसके राज्य सहित भस्म कर डालेंगे। भयभीत संजय ने मुनि के चरण पकड़ लिए और अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी।
गर्दभाल मुनि ने संजय को आश्वस्त करते हुए कहा कि उसे उनकी ओर से भय नहीं है पर उसे भी जीवों को अभय देना चाहिए। समस्त प्राणियों को अपने प्राण उतने ही प्रिय हैं, जितने उसे उसके प्राण प्रिय हैं। धन, यौवन और जीवन, सब कुछ क्षणभंगुर है। फिर क्षणभंगुर जीवन के लिए इतने पाप क्यों ?
मुनि के उपदेश से संजय प्रतिबुद्ध हो गया। वह मुनि बन गया और उत्कृष्ट आत्मसाधना में तल्लीन हो गया। गर्दभाली आचार्य भी केवलज्ञान का उपार्जन कर सिद्ध हुए ।
गर्दभिल्ल
यवपुर नरेश महाराज यव और रानी धारिणी का पुत्र । (देखिए - यवराजर्षि) (क) गांगेय (अणगार)
प्रभु पार्श्व की परम्परा के एक अणगार । वाणिज्यग्राम के द्युतिपलाश उपवन में गांगेय अणगार ने प्रभु महावीर का प्रवचन सुना और कुछ प्रश्न प्रभु से पूछे। समाधान पाकर चातुर्याम धर्म से पंचमहाव्रतात्मक धर्म में प्रवेश कर वे सिद्ध हुए ।
(ख) गांगेय (भीष्म)
हस्तिनापुर नरेश शान्तनु और गंगा का अंगजात । उसका लालन-पालन उसके मामा घर रत्नपुरी में हुआ। पांच वर्ष की अवस्था में ही गांगेय शस्त्र और शास्त्रों में कुशल बन गया था तथा अनेक दिव्य-विद्याएं उसने अपने विद्याधर मामा से सीख ली थीं। गांगेय कुमार की इस प्रतिभा पर उसके समवयस्क बालक उससे ईर्ष्या रखने लगे। उसी कारण से गंगा गांगेय को लेकर वन में चली गई। वन में गांगेय को निरन्तर मुनि-दर्शन का पुण्य लाभ प्राप्त होता रहा । जिससे उसके धार्मिक संस्कार पुष्ट बनते गए, साथ ही उन्मुक्त वातावरण में रहकर उसने मामा से प्राप्त विद्याओं का निरन्तर अभ्यास किया और वह शैशवावस्था पार करते-करते ही विश्व का सर्वश्रेष्ठ शस्त्र संचालक बन गया । धार्मिक भावों से ही प्रेरित होकर उसने उस वन समस्त प्राणियों को अभयदान दिया था। किसी शिकारी को वह शिकार नही करने देता था । संयोग से ••• जैन चरित्र कोश • 141 ♦♦♦