________________
लिए गए। भगवान का उपदेश सुनकर वे प्रतिबुद्ध हो गए। घर आकर उन्होंने माता-पिता और भाई से दीक्षा की अनुमति मांगी। सभी ने गजसुकुमार को विभिन्न विधियों से संयम न लेने के लिए मनाया। पर गजसुकुमार रुके नहीं। आखिर अग्रंज श्रीकृष्ण के कहने पर गजसुकुमार ने एक दिन के लिए राजपद स्वीकार कर लिया। सिंहासन पर बैठते ही गजसुकुमार ने अपने लिए दीक्षा की तैयारी का आदेश दिया।
समारोहपूर्वक गजसुकुमार दीक्षित हुए। उस क्षण माता देवकी ने गजसुकुमार को सीख देते हुए कहा था, पुत्र! ऐसी साधना करना कि तुम्हारे लिए किसी अन्य माता को आंसू न बहाने पड़ें!
दीक्षा के प्रथम दिन ही भगवान की आज्ञा लेकर अणगार गजसुकुमार ने द्वारिका नगरी के महाकाल नामक श्मशान में जाकर भिक्षु की बारहवीं प्रतिमा अंगीकार कर ली। उधर से गुजरते हुए सोमिल ब्राह्मण ने मुनि गजसुकुमार को देखा तो उसका पूर्वजन्मों का वैर-भाव जागृत हो आया। उसने मन ही मन कहा, इसने मेरी पुत्री को अपनाकर भी छोड़ दिया। अब मेरी पुत्री का क्या होगा?
पुत्री के भविष्य का चिन्तन निमित्त बन गया। सोमिल क्रोध से उबल पड़ा। उसने गजसुकुमार को सबक सिखाने के लिए तालाब से आर्द्र मिट्टी लेकर गजसुकुमार के सर पर पाल बांध दी और एक ठीकरे में जलती चिता से अंगारे भरकर मनि के सर पर उंडेल दिए। मनिका सर ध-ध कर जलने लगा। अनन्त पीड़ा का गरलपान करते हुए भी मुनि गजसुकुमार ने क्षमा और उपशम की भावधारा को खण्डित नहीं होने दिया। क्षपक श्रेण
वास के साथ मुनि गजसुकुमार सिद्ध हो गए। भय से कांपता हुआ सोमिल अपने घर चला गया।
दूसरे दिन वासुदेव श्रीकृष्ण भगवान के दर्शनों के लिए चले तो उन्होंने एक वृद्ध व्यक्ति को देखा, जो ईंटों के विशाल ढेर से एक-एक ईंट उठाकर अपने घर में रख रहा था। वृद्ध की सहायता के लिए श्रीकृष्ण ने ढेर से एक ईंट उठाकर उसके घर रख दी। श्रीकृष्ण का अनुगमन करते हुए उनकी अनुगामिनी भीड़ ने भी वैसा ही किया, जिससे हजारों चक्करों में पूर्ण होने वाला वृद्ध का कार्य क्षणभर में ही निपट गया। तदनन्तर श्रीकृष्ण भगवान के पास पहुंचे। भगवान को वन्दन करने के पश्चात् वे अपने अनुज अणगार गजसुकुमार को यत्र-तत्र देखने लगे। श्रीकृष्ण की मनःस्थिति को देखकर भगवान ने कहा, वासुदेव! अणगार गजसुकुमार ने अपना लक्ष्य साध लिया है।
सुनकर श्रीकृष्ण सन्न रह गए। उन्होंने भगवान से पूरी बात स्पष्ट करने की प्रार्थना की। भगवान ने फरमाया, वासुदेव! जैसे तुम्हारे सहयोगी बनने से वृद्ध के हजारों चक्कर समाप्त हो गए, ऐसे ही अणगार गजसुकुमार को भी एक सहयोगी मिल गया, जिसके सहयोग से सुदूर सिद्धि को मुनि ने शीघ्र ही साध
लिया।
व्यथित और दुखित श्रीकृष्ण ने पूछा, भगवन्! मेरे अनुज को अकाल में मृत्यु-मुख में धकेलने वाले उस अधम पुरुष को मैं कैसे पहचानूंगा?
भगवान ने कहा, जो पुरुष तुम्हें समक्ष पाकर निष्प्राण हो जाएगा, जान लेना वही वह पुरुष है!
भ्रातृविरह-व्यथित श्रीकृष्ण नगरी की ओर लौट चले। राजपथ का परित्याग कर उन्होंने एक संकरे मार्ग से नगर में प्रवेश किया। उधर सोमिल ब्राह्मण ने सोचा, प्रातः श्रीकृष्ण भगवान के पास जाएंगे और सब भेद जानकर, न जाने मुझे कैसी मृत्यु से मारेंगे। अच्छा यही है कि मैं शीघ्र ही द्वारिका नगरी से कहीं दूर चला जाऊं। इस विचार से वह भी छोटे मार्ग से द्वारिका से बाहर जाने के लिए निकला। सामने से श्रीकृष्ण को ... 138 ..
... जैन चरित्र कोश ...