________________
गंग आचार्य (निन्हव)
आचार्य महागिरि के प्रशिष्य जो उल्लुका नदी के तट पर स्थित खेड़े में निवास करते थे। नदी के पार उल्लुकातीर नामक नगर था, जहां आचार्य गंग के गुरु आचार्य धनगुप्त रहते थे। एक बार आचार्य गंग अपने गुरु के दर्शनों के लिए गए। नदी पार करते हुए वे विभ्रम का शिकार हो गए। पानी में चलते हुए उनके पैरों को जल ठिठुरा रहा था और लुचित सर पर सूर्य का ताप पड़ने से उनके सर को गर्मी लग रही थी। उनके मन में विचार आया-आगमों में उल्लेख है कि एक समय में एक ही क्रिया का वेदन होता है, परन्तु आगम का वह उल्लेख सच नहीं है, क्योंकि मैं एक ही समय में शीतलता और उष्णता, दोनों को अनुभव कर रहा हूं। गुरु के पास पहुंचकर उसने अपने अनुभव को सच और आगमोल्लेख को असच कहा। गुरु ने उसे समय की सूक्ष्मता और अनुभव की स्थूलता का तथ्य विभिन्न तर्कों से समझाने का यत्न किया, पर वह नहीं समझा। वह अपने दुराग्रह पर डटा रहा, फलतः उसे संघ से निकाल दिया गया। फिर एक बार जब आचार्य गंग राजगृह नगर के निकट महातपः तीर प्रपात के पास ही स्थित मणिप्रभ चैत्य में ठहरे तो वहां मणिनाग ने प्रकट होकर उन्हें चेताया। मणिनाग का प्रयास सफल हुआ और आचार्य गंग आलोचना / प्रायश्चित्त से विशुद्धात्म बनकर पुनः गुरु की सन्निधि में आ गए।
-ठाणांग वृत्ति-7 गंगदत्त श्रावक
शंखपुर नगर का रहने वाला एक श्रेष्ठी, जिसने एक मुनि से श्रावक धर्म अंगीकार किया और उसका पालन आजीवन पूर्ण श्रद्धा भाव से किया। एक बार गंगदत्त अपनी पौषधशाला में बैठा आत्मचिन्तन कर रहा था। उसके भाव चढ़े और उसने देशावकाशिक व्रत-किसी भी अवस्था में पौषधशाला की चारदीवारी से बाहर न जाने का व्रत ले लिया।
संध्या समय गंगदत्त का एक मित्र उसके पास आया और बोला, मित्र गंगदत्त! सागर तट पर एक व्यापारी आया है, वह बड़े ही सस्ते मूल्य में किरयाणा दे रहा है। यह विशेष लाभ का सुअवसर है। हमें इसी क्षण चलकर पर्याप्त मात्रा में माल खरीद लेना चाहिए, क्योंकि प्रभात होते ही वह व्यापारी आगे के लिए प्रस्थान कर देगा।
गंगदत्त ने निरपेक्ष भाव से मित्र की बात सुनी और उत्तर दिया, मैंने देशावकाशिक व्रत लिया है, आज मैं किसी भी स्थिति में पौषधशाला से बाहर नहीं जाऊंगा। 1. मित्र ने गंगदत्त को उकसाया, धर्म तो आन्तरिक भाव की बात है, उसे कल भी किया जा सकता है, पर बाहर के भाव का आज जो सुयोग है, वह तो जीवन में कभी-कभी ही प्राप्त होता है। १. इस पर गंगदत्त ने कहा, यह अपने-अपने सोचने का ढंग है। मैं बाह्य-लाभ के लिए आत्मलाभ को नहीं ठुकरा सकता हूं। तुम जा सकते हो! - जैन चरित्र कोश ...
-- 131 ...