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करे । क्षुल्लक मुनि माता के कहने पर बारह वर्षों के लिए रुक गया। बारह वर्ष बीतने पर जब वह पुनः माता
आज्ञा लेने गया तो प्रवर्तिनी आर्या ने उसे बारह वर्षों तक के लिए रोक लिया। उसके बाद वह बारह - बारह वर्षों के लिए आचार्य श्री और उपाध्याय श्री के कहने पर रुक गया। इस विधि से उसने अड़तालीस वर्षों तक संयम पालकर उसका त्याग कर दिया । क्षुल्लक मुनि की पालित माता ने उसे एक रत्नकम्बल दिया और उसका वंश परिचय दिया कि वह साकेत के सिंहासन का अधिकारी है। वह अपने ज्येष्ठ पिता के पास जाए और अपना सिंहासन प्राप्त कर ले
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क्षुल्लक कुमार साकेत पहुंचा। राजमहल के बाहर प्रांगण में एक नाटक चल रहा था । क्षुल्लक कुमार नाटक देखने में लीन हो गया । नटकन्या विभिन्न नाट्य दिखा रही थी । प्रभात खिलने को आया था पर राजा ने उसे अभी तक पुरस्कृत नहीं किया था । नटकन्या थक चुकी थी। उसके कदम लड़खड़ाने लगे थे। तब नटकन्या की माता ने पुत्री को सम्बोधित करते हुए एक गाथा पढ़ी, जिसका भावार्थ था - "हे श्याम सुंदरी! सुंदर नृत्य कर ! सुंदर गीत गा ! यह लंबी रात्रि सुंदर गाते-नाचते बीत गई है। अब तो रात्रि का अवसान होने को है । अब कुछ ही क्षण के लिए प्रमाद मत कर !"
यह गाथा सुनते ही क्षुल्लक कुमार ने अपना रत्न- कम्बल नटी को पुरस्कार में दे दिया। तभी राजकुमार अपना बहुमूल्य कुण्डल युगल नटी की झोली में डाल दिया। श्रीकान्ता नामक सार्थवाही ने अपना बहुमूल्य हार नटी को दिया। मंत्री ने अपना सोने का कड़ा और महावत ने स्वर्णनिर्मित अंकुश नटी को दे दिया ।
इस आकस्मिक और अकल्पित पुरस्कार- वर्षा को देखकर राजा पुंडरीक हैरान हो गया। उसने सर्वप्रथम क्षुल्लक कुमार से ही उसके दान का कारण पूछा। क्षुल्लक कुमार ने अपनी आत्मकथा को अथांत कहा और बोला, नर्तकी की माता की गीतिका ने मुझे मेरे पथ पर पुनः बढ़ने के लिए प्रेरित किया है। इसीलिए मैंने उसे रत्नकम्बल प्रदान कर दिया।
तब राजा ने राजकुमार से उसके पुरस्कार की प्रेरणा के बारे में पूछा। राजकुमार ने स्पष्ट किया, पिता जी! मैं सिंहासन प्राप्त करने के लोभ में अंधा बनकर आपके वध की योजना बना चुका था। पर उक्त गीतिका ने मुझे प्रतिबोध दिया कि अब तो थोड़े ही समय बाद आप स्वयं मुझे राज्य देंगे ही, अतः पितृवध का भागी बनना उचित नहीं ।
राजा के प्रश्न पर श्रीकांता सार्थवाही ने कहा, मेरे पति वर्षों से विदेश गए हैं। मेरा मन चंचल बन चुका था, पर इस गीतिका ने मेरे मन को पुनः सुस्थिर बना दिया है। उसी क्रम में मंत्री ने कहा कि वह पड़ौसी राजा के प्रस्ताव पर लुब्ध होकर उसे अपने राज्य की गुप्त सूचनाएं देने को तैयार हो गया था पर गीतिका ने मुझे मेरे कर्त्तव्य पथ पर पुनः सुदृढ़ बना दिया है। महावत ने अपनी बात कही, मैं भी पड़ौसी राजा के प्रलोभन में फंस कर राजहस्ति को मारने का मन बना चुका था, पर उक्त गीतिका ने मुझे मेरे कर्त्तव्य के प्रति सचेत कर दिया, इसीलिए मैंने स्वर्ण अंकुश उसे पुरस्कार में दे दिया ।
राजा सभी की बात सुनकर प्रबुद्ध हो गया। बोला, अब मैं भी राज्य से चिपका नहीं रहूंगा। जीवन के इस अंतिम पड़ाव पर संयम धारण कर आत्मकल्याण करूंगा। राजा के साथ ही श्रीकांता, मंत्री, महावत आदि ने भी दीक्षित होने का संकल्प ले दिया । ये सभी लोग क्षुल्लक कुमार के अनुगामी बनकर आचार्य श्री पास पहुंचे और सभी ने प्रव्रज्या अंगीकार कर आत्मकल्याण किया ।
- धर्मोपदेश माला, गाथा - 18, कथा 19 / ऋषिमंडल प्रकरण, पत्र- 93 जैन चरित्र कोश •••
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