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है। अतः उसे गोशालक के मत की आराधना करनी चाहिए।
___ तत्त्वज्ञ कुण्डकौलिक ने देवता की असत्य बात का प्रतिकार किया। उसने उससे पूछा कि उसे जो दिव्य ऋद्धि मिली है वह प्रयत्न से मिली है या अप्रयत्न से। देवता विमोहित हो गया। वह कोई उत्तर न दे सका। यदि वह कहे कि उसे अप्रयत्न से मिली है तो प्रश्न उभरता है कि वह पहाड़ों और वृक्षों को क्यों नहीं मिली क्योंकि वे पूर्ण रूप से अप्रयत्न में जीते हैं। और यदि कहे कि प्रयत्न से मिली है तो उसकी अपनी ही बात का खण्डन हो जाता। वह निरुत्तर हो गया। उसकी मिथ्यामति विदा हो गई। उसने कुण्डकौलिक को प्रणाम किया तथा उसकी और महावीर के धर्म की प्रशंसा करता हुआ अंतर्धान हो गया।
कुण्डकौलिक भगवान के दर्शन करने गया। भगवान ने श्रोता परिषद् में कुण्डकौलिक और देव के मध्य चले संवाद की चर्चा की और श्रमण, श्रमणियों से कहा कि उन्हें कुण्डकौलिक की धर्म-दृढ़ता से सीख लेकर मिथ्या तर्कों का निरसन करना चाहिए। ___आखिर चौदह वर्ष तक श्रावकाचार का पालन कर मासिक अनशन के साथ कुण्डकौलिक प्रथम स्वर्ग में गया। वहां से महाविदेह में जन्म लेकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा।
-उपासकदशांग सूत्र कुण्डरीक मुनि
पुंडरीकिणी नगरी का युवराज-पद त्याग कर कुण्डरीक मुनि बन गया। अरस-विरस आहार के कारण एक बार मुनि के शरीर में दाहज्वर हो गया और बढ़ता ही गया। गुरु के साथ विचरण करते हुए मुनि एक बार अपनी नगरी में आया, जहां उसका सहोदर पुंडरीक राज्य करता था।पुंडरीक ने सहोदर मुनि की रुग्णावस्था देखकर उससे प्रार्थना की कि वे उसकी दानशाला में रहकर समुचित उपचार कराएं। गुरु की आज्ञा से कुण्डरीक ने सहोदर राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली। उसने दानशाला में रहकर विविध औषधोपचारों से शीघ्र ही स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर लिया। कालक्रम से वह शरीर से तो स्वस्थ हो गया पर मन से अस्वस्थ हो गया। उसका मन अनुकूल आहार और सुखद विश्राम में रम गया। वह संयम का परित्याग कर गृहवास में लौटने का चिन्तन करने लगा। पुण्डरीक ने भाई की मनोदशा को जान लिया। उसने भाई को अनेक-विध युक्तियों और उक्तियों से समझाया पर समझा न पाया। आखिर पुंडरीक ने अपना राजमुकुट अपने सहोदर कुण्डरीक को दे दिया और स्वयं संयम लेकर साधना करने लगा। कुंडरीक अपने समक्ष भोगोपभोग के असंख्य साधन पाकर उन्हें भोगने लगा। पर अतिशय कामवर्धक भोज्य पदार्थों के अति आहार से वह शीघ्र ही रुग्ण हो गया और मरकर सातवीं नरक में गया। पुंडरीक मुनि भी अरस-विरस आहार से रुग्ण हो गए और समतापूर्वक देहोत्सर्ग कर सर्वार्थसिद्ध विमान में देव बने। ___ कुण्डरीक और पुण्डरीक का चरित्र भावों की महिमा को दर्शाता है। कुण्डरीक एक हजार वर्षों तक चारित्र पालकर अन्तिम अवस्था में फिसलने के कारण चन्द ही दिनों में इतना भारी कर्मा बन गया कि वह सातवीं नरक में गया। पुण्डरीक ने एक हजार वर्षों तक राजसी सुख भोगे, पर अन्तिम अवस्था में चन्द दिनों के संयम के कारण वे सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए। वस्तुतः व्यक्ति के उत्थान और पतन में चारित्र के अल्पत्व और बहुत्व की अपेक्षा उसके भावों का विशेष महत्व होता है। भावों से ही व्यक्ति उत्थित और पतित होता है।
-ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, अ. 19 कुणाल
मौर्यवंशी सम्राट अशोक का पितृभक्त और धर्मात्मा पुत्र । कुणाल की माता का नाम असन्ध्यमित्रा था ... जैन चरित्र कोश ...
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