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'साकेत' नामक प्रबन्ध ग्रन्थ के अनुसार अर्जुन की कर्ण से रक्षा के लिए वृद्ध ब्राह्मण का रूप धर कर इन्द्र कर्ण के पास पहुंचा और दान में उसके कवच कुण्डलों की याचना की । कहते हैं कि कर्ण की देह पर जन्म से ही कवच और कुण्डलों की आकृति थी और उसे वरदान प्राप्त था कि जब तक वे कवच-कुण्डल उसके शरीर पर अंकित हैं, तब तक वह अजेय रहेगा। परन्तु दानवीरों के लिए कुछ भी अदेय नहीं होता । वृद्ध ब्राह्मण की याचना पर कर्ण ने अपने शरीर से छील कर कवच-कुण्डल उसकी झोली में डाल दिए।
जैन - जैनेतर महाभारत तथा अन्य साहित्यिक ग्रन्थों में कर्ण का चरित्र चित्रण स्वर्णाक्षरों में अंकित हुआ है। कुछ साहित्यकारों और विद्वानों ने तो उसे कृष्ण और भीष्म की कोटि का उत्तम पुरुष माना है।
- जैन महाभारत
कर्मचन्द बच्छावत
वी.नि. की सोलहवीं सदी का एक शूरवीर, मेधावी, दूरदर्शी और परम जिनोपासक जैन श्रावक । वह बीकानेर का रहने वाला था। बीकानेर के संस्थापक राव बीका के समय से ही कर्मचन्द के पूर्वज दीवान पद पर रहते आए थे और बीकानेर राज्य के निर्माण और विकास में उनका बहुत बड़ा योगदान था । उसी परम्परा में बीकानेर का राव रायसिंह हुआ। कर्मचन्द बच्छावत उसी का दीवान था । कर्मचन्द ने जैन धर्म के उत्थान के कई कार्यक्रम किए। मुस्लिमों के कब्जे से उसने 1050 जैन प्रतिमाएं मुक्त कराई थीं। आचार्य जिनचन्द्र सूरि का उसने बीकानेर में भारी स्वागत कराया था। 1578 ई. में जब बीकानेर में दुष्काल पड़ा तो कर्मचन्द अकाल पीड़ितों के लिए अन्नशालाएं खोली थीं । इस प्रकार राजस्थान के इतिहास में जैन शिरोमणि कर्मचन्द बच्छावत का स्थान बहुत ऊंचा है।
राव रायसिंह उच्छृंखल, अदूरदर्शी और फिजूलखर्च करने वाला राजा था। उसके इन दुर्गुणों के कारण राज्य की स्थिति बिगड़ने लगी । कर्मचन्द बच्छावत ने इसके लिए राव रायसिंह को सावधान किया तो राव उसी का विरोधी हो गया। वह कर्मचन्द को सपरिवार नष्ट करने का षड्यन्त्र रचने लगा । दूरदर्शी कर्मचन्द ने सपरिवार बीकानेर का त्याग करके बादशाह अकबर की शरण ली। अकबर भी बच्छावत के सद्गुणों पर मुग्ध था। उसने बच्छावत का स्वागत किया और आश्रय दिया। बच्छावत सपरिवार बादशाह अकबर की शरण में रहा। परन्तु 1605 में अकबर की मृत्यु के पश्चात् कर्मचन्द भी दिवंगत हो गए। मृत्यु से पूर्व कर्मचन्द ने अपने परिवार को सावधान किया था कि कोई भी सदस्य बीकानेर न जाए ।
उधर राव रायसिंह भी मृत्यु को प्राप्त हुआ। मृत्यु से पूर्व उसने भी अपने उत्तराधिकारियों को सावधान कर दिया कि जैसे भी हो उन्हें बच्छावत परिवार से प्रतिशोध अवश्य लेना है। रायसिंह का उत्तराधिकारी सूरसिंह कर्मचन्द बच्छावत के भोले-भाले पुत्रों भागचन्द्र और लक्ष्मीचन्द्र को अपने वाग्जाल में फंसाने में सफल हो गया और सन् 1613 में उन्हें सपरिवार बीकानेर ले गया। बच्छावत परिवार में 500 सदस्य थे। दुष्ट राव ने अवसर साधकर पूरे परिवार को मृत्यु के घाट उतार दिया। बच्छावत परिवार की एक महिला, जो अपने मायके में थी और सगर्भा थी, वही जीवित रह पाई । अद्यतन उसी से बच्छावत वंश चल रहा है। - प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं
कर्मरक्षित
वसंतपुर नगर के श्रेष्ठी जिनदास का पुत्र, जिसे बचपन से ही 'भवितव्यता' और 'होनहार' पर अटल विश्वास था। उसके इसी विश्वास ने उसे निर्भय और समस्त परिस्थितियों में प्रसन्नचित्त रहने वाला बना **• जैन चरित्र कोश -