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________________ (122) जे यावि भुंजंति तहप्पगारं, सेवंति ते पावमजाणमाणा। मणं न एयं कुसला करेंति, वाया वि एसा बुइता तु मिच्छा॥ __ (सू.कृ. 2/6/825) जो लोग (बौद्धमतानुयायी) इस प्रकार के मांस का सेवन करते हैं, वे (पुण्य-पाप ॐके) तत्त्व को नहीं जानते हुए पाप का सेवन करते हैं। जो पुरुष कुशल (तत्त्वज्ञान में निपुण) हैं, वे ऐसे मांस खाने की इच्छा भी नहीं करते (मन में भी नहीं लाते) । मांस-भक्षण में दोष न होने का कथन भी मिथ्या है। {123} सव्वेसि जीवाण दयट्ठयाए, सावज्जदोसं परिवजयंता। तस्संकिणो इसिणो नायपुत्ता, उद्दिठ्ठभत्तं परिवज्जयंति॥ (सू.कृ. 2/6/826) समस्त जीवों पर दया करने के लिए, सावद्यदोष से दूर रहने वाले तथा (आहारादि । में) सावध (पापकर्म) की आशंका (छानबीन) करने वाले, ज्ञातपुत्रीय (भगवान् महावीर 卐 स्वामी के शिष्य) ऋषिगण उद्दिष्ट भक्त (साधु के निमित्त आरम्भ/हिंसा आदि करके तैयार है म किए हुए भोजन) का त्याग करते हैं। ___ (124) भूताभिसंकाए दुगुंछमाणा, सव्वेसि पाणाणमिहायदंडं। तम्हा ण भुंजंति तहप्पकारं, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं॥ __ (सू.कृ. 2/6/827) प्राणियों के उपमर्दन की आशंका से, सावद्य अनुष्ठान से विरक्त रहने वाले निर्ग्रन्थ ' श्रमण समस्त प्राणियों को दंड देने (हनन करने) का त्याग करते हैं, इसलिए वे (दोषयुक्त) आहारादि का उपभोग नहीं करते। इस जैन शासन में संयमी साधकों का यही परम्परागत धर्म (अनुधर्म) है। ब EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE [जैन संस्कृति खण्ड/36
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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