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________________ (116) तत्तु च्चिय मरियव्वं इय बद्धे आउयंमि तव्विरई। नणु किं साहेइ फलं तदारओ कम्मखवणं तु ॥ तत्तु च्चिय सो भावो जायइ सुद्धेण जीववीरिएण। कस्सइ जेण तयं खलु अविहित्ता गच्छई मुक्खं ॥ (श्रा.प्र. 214-215) वादी पूछता है कि मरने वाले प्राणी ने जब उसके निमित्त से ही मारे जाने रूप आयु : ॐ कर्म को बांधा है, तब उसके होते हुए वध की विरति कराने से कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होता EF है? उसका कुछ भी फल नहीं है। कारण यह कि उक्त प्रकार से बांधे गए कर्म के अनुसार मैं उसे उसी के हाथों मरना पड़ेगा। वादी की इस शंका के उत्तर में यहां यह कहा गया है कि म मरणकाल के पूर्व में ग्रहण कराई उस 'वध की विरति' से उसके कर्म का क्षय होने वाला है ॐ है, यही उस वधविरति का फल है। उस वध-विरति से किसी जीव के आत्म-निर्मलता रूपी सामर्थ्य से वह परिणाम प्रादुर्भूत होता है कि जिसके आश्रय से वह उस प्राणी का घात म न करके मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। 卐 [यह ऐकान्तिक नियम नहीं है कि जिसने अमुक (देवदत्त आदि) के हाथ से मारे जाने रूप आयु कर्म को卐 卐बांधा है, वह उसी के द्वारा मारा जाए। कारण यह कि वधक को ग्रहण कराई गई वध की विरति के बाद कदाचित्卐 ॐ निर्मल आत्मपरिणाम के बल से उस वधकर्ता के मन में यह भाव उत्पन्न हो जाय जिसके प्रभाव से वह उस वध्य प्राणी का घात न करके मुक्ति को प्राप्त कर ले।] 999999999999 卐yyyy {117) इय तस्स तयं कम्मं न जहकयफलं ति पावई अह तु। तं नो अज्झवसाणा ओवट्टणमाइभावाओ ॥ __ (श्रा.प्र. 216) वादी कहता है कि इस प्रकार से तो उस वध्य प्राणी के द्वारा जिस प्रकार के फल से युक्त कर्म को किया गया है, उसके उस प्रकार के फल से रहित हो जाने का प्रसंग प्राप्त होगा। इसके म समाधान में यहां यह कहा जा रहा है कि ऐसा नहीं है, क्योंकि अध्यवसाय के वश-उस प्रकार है 卐 की चित्त की विशेषता से-प्राणी के उक्त कर्म के विषय में अपवर्तन आदि संभव है। 3 [वादी के कहने का अभिप्राय यह था कि वध्य प्राणी ने 'मैं अमुक के हाथों मारा जाऊंगा' इस प्रकार के 卐 कर्म को बांधा था, पर वध की विरति के प्रभाव से जब वह उसके द्वारा नहीं मारा गया, तब वह उसका कर्म निरर्थकता ॐ को क्यों न प्राप्त होगा? इसका समाधान करते हुए यहां यह कहा गया है कि प्राणी जिस प्रकार के विपाक से युक्त कर्म 卐 को बांधता है, उसमें आत्मा के परिणाम-विशेष से अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण आदि भी संभव हैं। अतएव जो ॐ कर्म जिस रूप से बांधा गया है, उसकी स्थिति में हीनाधिकता हो जाने से अथवा उसके अन्य प्रकृति रूप परिणत हो卐 卐 जाने के कारण यदि उसने वैसा फल नहीं दिया, तो इसमें कोई विरोध सम्भव नहीं है।] 听听听听听听听听听听听听 अहिंसा-विश्वकोश।53)
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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