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________________ ULELELELELELELELELELEUCLELELELELELELELELELELELELCLCLCLCLCLCU PIPRASARI H SSHSS -12 ' O हिंसा-दोषः कुछ शंकाएं और समाधान (1141 '''' अन्ने भणंति कम्मं जं जेण कयं स भुंजइ तयं तु। चित्तपरिणामरूवं अणेगसहकारिसाविक्खं ॥ तक्कयसहकारित्तं पवज्जमाणस्स को वहो तस्स। तस्सेव तओ दोसो जं तह कम्मं कयमणेणं ॥ (श्रा.प्र. 209-210) दूसरे कितने ही वादी यह कहते हैं कि जिस जीव ने जिस कर्म को किया है, वह नियम से अनेक प्रकार के परिणामस्वरूप उस कर्म को अनेक सहकारी कारणों की अपेक्षा से भोगता है। वध्यमान उस जीव के द्वारा की गई सहकारिता को प्राप्त होने वाले उस वध कर्ता को उस वध्यमान जीव के वध का कौन-सा दोष प्राप्त है? उसका उसमें कुछ भी दोष ॐ नहीं है। वह दोष तो उस वध्यमान प्राणी का ही है, क्योंकि उसने उस प्रकार के-उसके निमित्त से मारे जाने रूप-कर्म को किया है। [इन वादियों द्वारा प्रस्तुत की गई शंका का अभिप्राय यह है कि जिस जीव ने जिस प्रकार के कर्म को किया है उसे उस कर्म के विपाक के अनुसार उसके फल को भोगना ही पड़ता है। वध करने वाला प्राणी तो उसके इस वध में निमित्त मात्र होता है। वह भी इसलिए कि उसने 'मैं इसके निमित्त से मरूंगा' ऐसे ही कर्म को उपार्जित किया है। अत: वध करने वाले को वध्य व्यक्ति के ही कर्म के अनुसार उसके वध में सहकारी होना पड़ता है, तब भला इसमें उस बेचारे वधकर्ता का कौन-सा अपराध है? उसका कुछ भी अपराध नहीं है। कारण यह कि वध्यमान प्राणी ने न वैसा कर्म किया होता न उसके हाथों मरना पड़ता।] ' 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明听听听听听听听听听听听听听听 ''' (115) नियकयकम्मुवभोगे वि संकिलेसो धुवं वहंतस्स। तत्तो बंधो तं खलु तव्विरईए विवजिजा।। (श्रा.प्र. 213) 卐 (उपर्युक्त शंका का समाधान-) स्वकृत कर्म के उपभोग में भी वध करने वाले के परिणाम में निश्चय से जो संक्लेश होता है, उससे उसके कर्म का बंध होता है। उसे उस वध का व्रत कराने से छुड़ाया जाता है। [जो प्राणी किसी वधक के हाथों मारा जाता है, वह यद्यपिं अपने द्वारा किए गए कर्म के ही उदय से मारा卐 卐 जाता है व तज्जन्य दुःख को भोगता है, फिर भी इस क्रूर कार्य से मारने वाले के अन्त:करण में जो संक्लेश परिणाम卐 卐 होता है, उससे निश्चित ही उसके पाप कर्म का बंध होने वाला है। उपर्युक्त उस वधविरति के द्वारा उसे इस पापकर्म) ज के बंध से बचाया जाता है, जो उसके लिए सर्वथा हितकर है।] 卐 卐 IrrI-FFIELEDGEDELELELELELELELELLE POParl. R [जैन संस्कृति खण्ड/52
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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