SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 532
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ $$$$$$$$$$ इति क्षीरकदम्बात्मजेष्टार्थानुगताः स्वयम्। आथर्वणगताषष्टिसहस्रप्रमिताः पृथक् ॥ (350) ऋचो वेदरहस्यानीत्युत्पाद्याध्याप्य पर्वतम्। शांतिपुष्ट्यभिचारात्मक्रियाः पूर्वोक्तमन्त्रणैः॥ (351) निशिताः पवनोपेतवहि ज्वालासमाः फलम्। इष्टे रुत्पादयिष्यन्ति प्रयुक्ताः पशुहिंसनात् ॥ (352) ततः साकेतमध्यास्य शान्तिकादिफलप्रदम्। हिंसायागं समारभ्य प्रभावं विदधामहे ॥ (353) इस प्रकार, उस महाकाल ने क्षीरकदम्ब के पुत्र पर्वत के इष्ट अर्थ का अनुसरण करने वाली अथर्ववेद ॐ सम्बन्धी साठ हजार ऋचाएं पृथक्-पृथक् स्वयं बनाईं। ये ऋचाएं वेद का रहस्य बतलाने वाली थीं, उसने पर्वत के 卐 卐 लिए इनका अध्ययन कराया और कहा कि पूर्वोक्त मंत्रों से वायु के द्वारा बढ़ी हुई अग्नि की ज्वाला में शांति-पुष्टि और 卐 अभिचारात्मक क्रियाएं की जाएं तो पशुओं की हिंसा से इष्ट फल की प्राप्ति हो जाती है। तदनन्तर उन दोनों ने विचार किया कि हम दोनों अयोध्या जाकर रहें और शांति आदि फल प्रदान करने वाला हिंसात्मक यज्ञ प्रारम्भ कर अपना " प्रभाव उत्पन्न करें। इत्युक्त्वा वैरिनाशार्थमात्मीयान् दितिपुत्रकान्। तीव्रान् सगरराष्ट्रस्य बाधां तीव्रज्वरादिभिः॥ (354) कुरुध्वमिति संप्रेष्य सद्विजस्तत्पुरं गतः। सगरं मंत्रगर्भाशीर्वादेनालोक्य पर्वतः॥ (355) स्वप्रभावं प्रकाश्यास्य त्वद्देशविषमाशिवम्। शमयिष्यामि यज्ञेन समन्त्रेणाविलम्बितम्॥ (356) • ऐसा कह कर महाकाल ने वैरियों का नाश करने के लिए अपने क्रूर असुरों को बुलाया और आदेश दिया कि तुम लोग राजा सगर के देश में तीव्र ज्वर आदि के द्वारा पीड़ा उत्पत्र करो। यह कह कर असुरों को भेजा और स्वयं पर्वत को साथ लेकर राजा सगर के नगर में गया। वहां मंत्र-मिश्रित आशीर्वाद के द्वारा सगर के दर्शन कर पर्वत ने अपना प्रभाव दिखलाते हुए कहा कि तुम्हारे राज्य में जो अमंगल हो रहा है, मैं उसे मंत्रसहित यज्ञ के द्वारा शीघ्र ही शांत कर दूंगा। . 弱弱弱弱弱~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ यज्ञाय वेधसा सृष्टा पशवस्तद्विहिं सनात्। न पापं पुण्यमेव स्यात्स्वर्गोरुसुखसाधनम्॥ (357) इति प्रत्याय्य तं पापः पुनरप्येवमब्रवीत् । त्वं पशूनां सहस्राणि षष्टिं यागस्य सिद्धये ॥ (358) कुरु संग्रह मन्यच्च द्रव्यं तद्योग्यमित्यसौ। राजाऽपि सर्ववस्तूनि तथैवास्मै समर्पयत् ॥ (359) विधाता ने पशुओं की सृष्टि यज्ञ के लिए ही की है, अतः उनकी हिंसा से पाप नहीं होता, किंतु स्वर्ग के विशाल सुख को प्रदान करने वाला पुण्य ही होता है। इस प्रकार विश्वास दिला कर वह पापी फिर कहने लगा कि तुम यज्ञ की सिद्धि के लिए साठ हजार पशुओं का तथा यज्ञ के योग्य अन्य पदार्थों का संग्रह करो। राजा सगर ने भी उसके कहे अनुसार सब वस्तुएं उसके लिए सौंप दी। SEEEEEEEEEEEEEE E [जैन संस्कृति खण्ड/502 ॐ
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy