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________________ *$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$花 卐卐卐卐卐卐卐卐卐 तथा 卐 वलिसद्वपुः । तीर्थगणाधीशशेषके संस्कारमहिताग्नीन्द्रमुकुटोत्थाग्निषु प्राप्तान्निजान् त्रिषु ॥ (204) पितृपितामहान् । परमात्मपदं उद्दिश्य भाक्तिकाः पुष्पगंधाक्षतफलादिभिः ॥ (205) आर्षोपासकवेदोक्तमंत्रोच्चारणपूर्वकम् I दानादिसत्क्रि योपेता गेहा श्रमतपस्विनः ॥ (206) नित्यमिष्ट वेन्द्रसामानिकादिमान्यपदोदिताः लौकान्तिकाश्च भूत्वाऽमरद्विजा ध्वस्तकल्मषा: ॥ (207) 1 के मुकुट से उत्पन्न हुई तीन अग्नियां हैं। उनमें अत्यन्त भक्त तथा दान आदि उत्तमोत्तम क्रियाओं को करने वाले तपस्वी, इसके सिवाय तीर्थंकर, गणधर तथा अन्य केवलियों के उत्तम शरीर के संस्कार से पूज्य एवं अग्निकुमार इंद्र 卐 | गृहस्थ, परमात्मपद को प्राप्त हुए अपने पिता तथा प्रपितामह को उद्देश्य कर ऋषिप्रणीत वेद में कहे मंत्रों का उच्चारण करते हुए जो अक्षत, गंध, फल आदि के द्वारा आहुति देते हैं, वह दूसरा आर्ष यज्ञ कहलाता है। जो निरंतर यह यज्ञ करते हैं, वे इंद्र, सामानिक आदि माननीय पदों पर अधिष्ठित होकर लौकान्तिक नामक देव-ब्राह्मण होते हैं और अन्त में समस्त पापों को नष्ट कर, मोक्ष प्राप्त करते हैं। तीर्थंकरों वे द्वितीयज्ञानवेदस्य सामान्येन सतः सदा । द्रव्यक्षेत्रादिभेदेन कर्तृणां तीर्थदेशिनाम् ॥ (208) पञ्चकल्याणभेदेषु देवयज्ञविधानतः । चितपुण्यफलं भुक्त्वा क्रमेणाप्स्यंति सिद्धताम् ॥ (209) दूसरा श्रुतज्ञानरूपी वेद सामान्य की अपेक्षा सदा विद्यमान रहता है, उसके द्रव्य, क्षेत्र आदि के भेद से अथवा के पंच कल्याणकों के भेद से अनेक भेद हैं, उन सबके समय जो श्री जिनेन्द्र देव का यज्ञ अर्थात् पूजन करते पुण्य का संचय करते हैं और उसका फल भोग कर क्रम-क्रम से सिद्ध अवस्था - मोक्ष प्राप्त करते हैं। $$$$$$$$$$$$$$$$$ [ जैन संस्कृति खण्ड /486 यागोऽयमृषिभिः प्रोक्तो यत्यगारिद्वयाश्रयः । आद्यो मोक्षाय साक्षात्स्यात्स्यात्परंपरया पर: ॥ (210) एवं परंपरायातदेवयज्ञविधिष्विह । द्विलोकहितकृत्येषु वर्तमानेषु संततम् ॥ (211) मुनिसुव्रततीर्थे शसंताने सगरद्विषः । महाकालासुरो हिंसायज्ञमज्ञो ऽन्वशादमुम् ॥ (212) कथं तदिति चेदस्मिन् भारते चारणादिके । युगले नगरे राजाऽजनि नाम्रा सुयोधनः ॥ (213) 卐 卐 筑 卐 卐 इस प्रकार ऋषियों ने यह यज्ञ मुनि और गृहस्थ के आश्रय से दो प्रकार का निरूपण किया है। इनमें से पहला मोक्ष का साक्षात् कारण है और दूसरा परम्परा से मोक्ष का कारण है। इस प्रकार इस देवयज्ञ की विधि परम्परा से चली आई है, यही दोनों लोकों का हित करने वाली है और यही निरन्तर विद्यमान रहती है। किंतु श्री मुनिसुव्रतनाथ 编 卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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