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________________ हिंसार्थों यज्ञशब्दवेत्तत्कर्तुनारकी गतिः। प्रयाति सोऽपि चेत्स्वर्ग विहिंसानामधोगतिः॥ (196) तव स्यादित्यभिप्रायो हिंस्यमानाङ्गिदानतः। तद्वधेन च देवानां पूज्यत्वाधज्ञ इत्ययम्॥ (197) वर्तते देवपूजायां दाने चान्वर्थतां गतः। एतत्स्वगृहमान्यं ते यद्यस्मिन्नेष इत्यपि॥ (198) हिंसायामिति धात्वर्थपाठे किं न विधीयते । न हिंसा यज्ञशब्दार्थों यदि प्राणवधात्मकम्॥ (199) यज्ञं कथं चरन्त्यार्या इत्यशिक्षितलक्षणम्। आर्षानार्षविकल्पेन यागो द्विविध इष्यते ॥ (200) ~~~~~~~~叫~~~~~~航~~~~~~~~~~~~~~~~~ यदि 'यज्ञ' शब्द का अर्थ हिंसा करना ही होता है तो इसके करने वाले की नरक गति होनी चाहिए। यदि ऐसा हिंसक भी स्वर्ग चला जाता है तो फिर जो हिंसा नहीं करते हैं, उनकी अधोगति होनी चाहिए-उन्हें नरक FE जाना चाहिए। कदाचित् आपका यह अभिप्राय हो कि यज्ञ में जिसकी हिंसा की जाती है, उसके शरीर का दान किया जता है, अर्थात् सबको वितरण किया जाता है और उसे मार कर देवों की पूजा की जाती है। इस तरह यज्ञ शब्द का अर्थ जो दान देना और पूजा करना है, उसकी सार्थकता हो जाती है। तो आपका यह अभिप्राय ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरह दान और पूजा का जो अर्थ आपने किया है, वह आपके ही घर मान्य होगा, सर्वत्र नहीं। यदि - यज्ञ शब्द का अर्थ हिंसा ही है तो फिर धातु पाठ में जहां धातुओं के अर्थ बतलाए हैं, वहां यज्धातु का अर्थ हिंसा क्यों नहीं बतलाया? वहां तो मात्र 'यज् देवपूजासंगतिकरणदानेषु' अर्थात् यज् धातु, देवपूजा, संगतिकरण और दान देना-इतने अर्थों में आती है, यही बतलाया है। इसलिए यज् धातु से बने 'यज्ञ' शब्द का अर्थ हिंसा करना कभी नहीं हो सकता। कदाचित् आप यह कहें कि यदि हिंसा करना यज्ञ शब्द का अर्थ नहीं है तो आर्य पुरुष प्राणिहिंसा से भरा हुआ यज्ञ क्यों करते हैं? तो आपका यह कहना अशिक्षित अथवा मूर्ख का लक्षण है- चिह्न है। क्योंकि आर्ष और अनार्ष के भेद से यज्ञ दो प्रकार का माना जाता है। तीर्थेशो जगदायेन परमब्रह्मणोदिते। वेदे जीवादिषड्द्रव्यभेदे याथात्म्यदेशने ॥ (201) त्रयोऽग्रयः समुद्दिष्टाः क्रोधकामोदराग्रयः। तेषु क्षमाविरागत्वानशनाहु तिभिर्वने ॥ (202) स्थित्वर्षियतिमुन्यस्तशरणाः परमद्विजाः। इत्यात्मयज्ञमिष्टार्थामष्टमीमवनों ययुः॥ (203) इस कर्मभूमिरूपी जगत् के आदि में होने वाले परमब्रह्म श्रीवृषभदेव तीर्थकर के द्वारा कहे हुए वेद में जिसमें ॐ कि जीवादि छह द्रव्यों के भेद का यथार्थ उपदेश दिया गया है-क्रोधाग्नि, कामाग्नि और उदराग्नि- ये तीन अग्नियां बतलाई 卐 गई हैं। इनमें क्षमा, वैराग्य और अनशन की आहुतयां देने वाले जो ऋषि, यति, मुनि और अनगार रूपी श्रेष्ठ द्विज वन में ॐ निवास करते हैं, वे आत्मयज्ञ कर इष्ट अर्थ को देने वाली अष्टम पृथिवी-मोक्ष स्थान को प्राप्त होते हैं। LELELELELELELELELELELELCLCLCLCLCUELELELELELELELELELELELELELEB अहिंसा-विश्वकोश/4851
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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