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________________ M FREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE निरचिन्वंश्च भूपेन साकं तत्कार्यमेव ते। तदैव जनको दूतं प्राहिणोद्रामलक्ष्मणौ ॥ (179) मदीययागरक्षार्थ प्रहे तव्यौ कृतत्वरम्। रामाय दास्यते सीता चेति शासनहारिणम्॥ (180) सलेखोपायनं सन्तं नृपं दशरथं प्रति। तथाऽन्यांश्च महीट्सूनून् दूतानानेतुमादिशत् ॥ (181) E明明明明明明明明明明听听听听听听听听听听听听听 राजा जनक के साथ-ही-साथ सब लोगों ने इस कार्य का निश्चय कर लिया और राजा जनक ने उसी समय सत्पुरुष राजा दशरथ के पास पत्र तथा भेंट के साथ एक दूत भेजा तथा उससे निम्न संदेश कहलाया कि आप मेरे यज्ञ की रक्षा के लिए शीघ्र ही राम तथा लक्ष्मण को भेजिए। यहां राम के लिए सीता नामक कन्या दी जाएगी। राम-लक्ष्मण के सिवाय अन्य राजपुत्रों को बुलाने के लिए अन्य-अन्य दूत भेजे। अयोध्येशोऽपि लेखार्थ दूतोक्तं चावधारयन्। तत्प्रयोजननिश्चित्य मंत्रिणं पृच्छति स्म सः॥ (182) जनकोक्तं निवेद्यात्र किं कार्य क्रि यतामिति । इदमागमसाराख्यो मंत्र्यवोचद् वचोऽशुभम्॥ (183) निरन्तरायसंसिद्धौ यागस्यो भयलोकजम्। हितं कृतं भवेत्तस्माद् गतिरस्त्वनयोरिति॥ (184) अयोध्या के स्वामी राजा दशरथ ने भी पत्र में लिखे अर्थ को समझा, दूत का कहा समाचार सुना और इस जसबका प्रयोजन निश्चित करने के लिए मन्त्री से पूछा। उन्होंने राजा जनक का कहा हुआ सब मंत्रियों को सुनाया और पूछा कि क्या कार्य करना चाहिए? इसके उत्तर में आगमसार मंत्री निम्नांकित अशुभ वचन कहने लगा कि यज्ञ के ॐ निर्विघ्न समाप्त होने पर दोनों लोकों का हित होगा और उससे इन दोनों कुमारों की उत्तम गति होगी। %! %%% वचस्यवसिते तस्य तदुक्तमवधार्य सः। प्रजल्पति स्मातिशयमत्याख्यो मंत्रिणां मतः॥ (185) धर्मों यायोऽयमित्येतत्प्रमाणपदवीं वचः। न प्राप्नोत्यत एवात्र न वर्तन्ते मनीषिणः॥ (186) %% %% आगमसार के वचन समाप्त होने पर उसके कहे हुए का निश्चय कर अतिशयमति नामक श्रेष्ठ मंत्री कहने लगा कि यज्ञ करना धर्म है, यह वचन प्रमाणकोटि को प्राप्त नहीं है, इसीलिए बुद्धिमान् पुरुष इस कार्य में प्रवृत्त नहीं होते हैं। 曾 अहिंसा-विश्वकोश।483]
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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