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________________ SHEEFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF552 (1035) म लजमाणा पुढो पास। अणगारा मो'त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं 卐 ॐ सत्थेहिं उदयकम्मसमारंभेण उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे वष्णेगरूवे पाणे विहिंसति। के तत्थ खलु भमवता परिण्णा पवेदिता-इमस्स चेव जीवितस्स परिवंदण माणण- पूयणाए जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतुं से सयमेव उदयसत्थं 卐समारंभति, अण्णेहिं वा उदयसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा उदयसत्थं समरंभंते ॥ समणुजाणति। तं से अहिताए तं से अबोधीए। सेत्तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए। सोच्चा भगवतो अणगाराणं इहमेगेसिं मणातं भवति- एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए। 卐 卐 इच्चत्थं गढिए, लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं उदयकम्मसमारंभेणं है उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे वऽणेगरूवे पाणे विहंसति । से बेमि-संति पाणा उदयणिस्सिया जीवा अणेगा। इहं च खलु भो अणगाराणं उदय-जीवा वियाहिया। सत्थं चेत्थ अणुवीयि पास। पुढो सत्थं पवेदितं । अदुवा अदिण्णादाणं। (आचा. 1/1/2/सू. 23-26) तू देख! सच्चे साधक हिंसा (अप्काय की) करने में लज्जा अनुभव करते हैं। और उनको भी देख, जो अपने आपको 'अनगार' घोषित करते हैं, वे विविध प्रकार के शस्त्रों के 卐 (उपकरणों) द्वारा जल-सम्बन्धी आरंभ-समारंभ करते हुए जल-काय के जीवों की हिंसा करते हैं। और साथ ही तदाश्रित अन्य अनेक जीवों की भी हिंसा करते हैं। इस विषय में भगवान ने परिज्ञा अर्थात् विवेक का निरूपण किया है। अपने इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म-मरण और मोक्ष के लिए, दुःखों के ॐ का प्रतीकार करने के लिए (इन कारणों से) कोई स्वयं अप्काय की हिंसा करता है, दूसरों के से भी अप्काय की हिंसा करवाता है और अप्काय की हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है। यह हिंसा, उसके अहित के लिए होती है तथा अबोधि का कारण बनती है। है वह साधक यह समझते हुए संयम-साधना में तत्पर हो जाता है। भगवान् से या ' 卐 अनगार मुनियों से सुनकर कुछ मनुष्यों को यह परिज्ञात हो जाता है, जैसे-यह अप्कायिक ॥ जीवों की हिंसा 'ग्रन्थि' है, मोह है, साक्षात् मृत्यु है, नरक है। फिर भी मनुष्य (जीवन, प्रशंसा, सन्तान आदि के लिए) इस में आसक्त होता है। जो कि तरह-तरह के शस्त्रों से उदक-काय की हिंसा-क्रिया में संलग्न होकर अप्कायिक F FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFN [जैन संस्कृति खण्ड/416 $听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明听听听听听听听听听听听听听听听出
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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