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________________ EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEER (1027) उड्ढं अधं तिरियं दिसासु सव्यतो सव्वावंति च णं पाडियक्कं जीवेहिं ' कम्मसमारंभे णं। तं परिण्णाय मेहावी व सयं एतेहिं काएहिं दंडं समारंभेजा, णेवऽण्णेहिं एतेहिं काएहिं दंडं समारभावेजा, णेवण्णे एतेहिं काएहिं दंडं समारभंते वि समणुजाणेजा। जे चऽण्णे एतेहिं काएहिं दंडं समारभंति तेसि पि वयं लज्जामो। तं परिण्णाय मेहावी तं वा दंडं अण्णं वा दंडं णो दंडभी दंडं समारभेज्जासि त्ति बेमि। (आचा. 1/8/1 सू. 203) ऊंची, नीची एवं तिरछी, सब दिशाओं (और विदिशाओं) में सब प्रकार से एकेन्द्रियादि 卐 जीवों में से प्रत्येक को लेकर (उपमर्दनरूप) कर्म-समारम्भ किया जाता है। मेधावी साधक ॐ उस (कर्मसमारम्भ) का परिज्ञान (विवेक) करके, स्वयं इन षट्जीवनिकायों के प्रति दण्ड समारम्भ न करे, न दूसरों से इन जीवनिकायों के प्रति दण्ड समारम्भ करवाए और न ही म जीवनिकायों के प्रति दण्डसमारम्भ करने वालों का अनुमोदन करे। जो अन्य दूसरे (भिक्षु) म इन जीवनिकायों के प्रति दण्डसमारम्भ करते हैं, उनके (उस जघन्य) कार्य से भी हम लज्जित होते हैं। म (दण्ड/हिंसा महान् अनर्थकारक है)- इसे दण्डभीरु मेधावी मुनि परिज्ञात करके 卐 उस (पूर्वोक्त जीव-हिंसा रूप) दण्ड का अथवा मृषावाद आदि किसी अन्य दण्ड काम समारम्भ न करे। - ऐसा मैं कहता हूं। 少$$$听听听听听听听明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明 1028) पुढवी-आउक्काए तेऊ-वाऊ-वणस्सइ-तसाणं। पडिलेहणआउत्तो छण्हं आराहओ होइ॥ (उत्त. 27/31) प्रतिलेखन में अप्रमत्त मुनि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय-इन छहों कायों का आराधक-रक्षक होता है। क卐STREYESH अहिंसा-विश्वकोश।4131
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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