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{953) त्यक्त्वा कार्कश्यपारुष्यं यतेर्यनवतः सदा। भाषणं धर्मकार्येषु भाषासमितिरिष्यते ॥
(ह. पु. 2/123) सदा कर्कश और कठोर वचन छोड़कर यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले यति का धर्म* कार्यों में बोलना 'भाषा समिति' कहलाती है।
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954) कोहे माणे य मायाए लोभे य उवउत्तया। हासे भए मोहरिए विगहासु तहेव य॥ एयाइं अट्ठ ठाणाइं परिवजित्तु संजए। असावजं मियं काले भासं भासेज पनवं॥
(उत्त. 24/9-10) क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, वाचालता और विकथा के प्रति सतत उपयोगयुक्त 卐 (वर्जना के लिए सावधान) रहे। प्रज्ञावान् संयती इन आठ उपर्युक्त क्रोधादि स्थानों को
छोड़कर यथासमय निरवद्य- दोषरहित और परिमित भाषा बोले।
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1955)
अवद्यत्यागतः सार्वजनीनं मितभाषणम्। प्रिया वाचंयमानां सा भाषासमितिरुच्यते॥
(है. योग. 1/37) वचन पर संयम रखने वाले या प्रायः मौनी साधकों द्वारा निर्दोष, सर्वहितकर एवं परिमित, प्रिय एवं सावधानी-पूर्वक बोलना 'भाषा समिति' कहलाता है।
1956)
_वासावासं पजोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परं पजोसवणाओ अहिगरणं वदित्तए, जो णं निग्गंथो वा 2 परं पजोसवणाओ अहिगरणं वयइ से णं अकप्पेणं अज्जो! वयसी,ति वत्तव्वे सिया, जो णं निग्गंथो वा 2 परं पज्जोसवणाओ अहिगरणं वयइ से णं निजूहियव्वेसिया।
(कल्प. 285)
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[जैन संस्कृति खण्ड/382