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________________ * 595555555559%%%%%%%%%%%%%%% (91A) दुःखमेवेति चाभेदादसद्वेद्यादिहेतवः। नित्यं हिंसादयो दोषा भावनीयाः मनीषिभिः॥ __(ह. पु. 58/124) नीति के जानकार पुरुषों को निरन्तर ऐसी भावना करनी चाहिए कि ये हिंसा आदि दोष - दु:ख रूप ही हैं। यद्यपि ये दुःख के कारण हैं, दुःख रूप नहीं, परन्तु कारण और कार्य में अभेद - विवक्षा से ऐसा चिन्तवन करना चाहिए। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य,- ये चार भावनाएं क्रम से प्राणी-मात्र, गुणाधिक, दुःखी और अविनेय जीवों में करनी चाहिएं। 卐 [भावार्थ- किसी जीव को दुःख न हो- ऐसा विचार करना 'मैत्री भावना है। अपने से अधिक गुणी मनुष्यों है 卐 को देख कर हर्ष प्रकट करना 'प्रमोद भावना' है। दुःखी मनुष्यों को देख कर हृदय में दयाभाव उत्पन्न होना 'करुणा भावना' है और अविनेय मिथ्यादृष्टि जीवों में मध्यस्थ भाव रखना 'माध्यस्थ्य भावना' है।] 1915) E明明明明明明明明明明明 頭明弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱虫弱弱弱虫頃弱弱弱弱弱弱弱弱市 वयगुत्ती मणगुत्ती इरियासमिदी सुदाणणिक्खेवो। अवलोयभोयणाए अहिंसए भावणा होंति ॥ (चा.पा. 32) __ 1. वचनगुप्ति 2. मनोगुप्ति,3. ईर्यासमिति 4. सुदाननिक्षेप और 5. आलोकितभोजनये अहिंसा-व्रत की पांच भावनाएं हैं। (916) एसणणिक्खेवादाणिरियासामिदी तहा मणोगुत्ती। आलोयभोयणंपि य अहिंसाए भावणा पंच॥ (मूला. 4/337) एषणासमिति, आदाननिक्षेपण समिति, ईर्या समिति तथा मनोमुप्ति और आलोकित भोजन (रात्रिभोजन-त्याग)- अहिंसाव्रत की ये पांच भावनाएं हैं। S E EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE अहिंसा-विश्वकोश।3671
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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