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{863) लाढे हिं तस्सुवसग्गा बहवे जाणवया लूसिंसु । अह लूहदेसिए भत्ते कुक्कुरा तत्थ हिंसिंसु णिवतिंसु॥82 ॥ अप्पे जणे णिवारेति लूसणए सुणए डसमाणे। छुच्छुकारेंति आहेतु समणं कुक्कुरा दसंतु त्ति ॥ 83 ॥ एलिक्खए जणे भुज्जो बहवे वज्जभूमि फरूसासी। लट्ठि गहाय णालीयं समाणा तत्थ एव विहरिंसु ॥ 84॥ एवं पि तत्थ विहरंता पुठ्ठपुव्वा अहेसि सुणएहिं । संतुंचमाणा सुणएहिं दुच्चरगाणि तत्थ लाढेहिं ॥ 85 ॥ णिहाय डंडं पाणेहिं तं वोसेज कायमाणगारे। अह गाम कंटए भगवं ते अहियासए अभिसमेजा ॥ 86 ॥
(आचा. 1/9/3 सू. 295-299) लाढ़ देश के क्षेत्र में भगवान् ने अनेक उपसर्ग सहे। वहां के बहुत से अनार्य लोग # भगवान् पर डण्डों आदि से प्रहार करते थे, (उस देश के लोग ही रूखे थे, अतः) भोजन 卐 भी प्रायः रूखा-रूखा ही मिलता था। वहां के शिकारी कुत्ते उन पर टूट पड़ते और काट ' खाते थे। (82)
कुत्ते काटने लगते या भौंकते तो बहुत थोड़े-से लोग उन काटते हुए कुत्तों को म रोकते, (अधिकांश लोग तो) इस श्रमण को कुत्ते काटें, इस नीयत से कुत्तों को बुलाते और 卐 छुछकार कर उनके पीछे लगा देते थे। (83)
वहां ऐसे स्वभाव वाले बहुत से लोग थे, उस जनपद में भगवान् ने (छः मास तक) पुनः-पुनः विचरण किया। उस वज्र (वीर) भूमि के बहुत-से लोग रूक्षभोजी होने के
कारण कठोर स्वभाव वाले थे। उस जनपद में दूसरे श्रमण अपने (शरीर-प्रमाण) लाठी और 卐 (शरीर से चार अंगुल लम्बी) नालिका लेकर विहार करते थे। (84)
इस प्रकार से वहां विचरण करने वाले श्रमणों को भी पहले कुत्ते (टांग आदि से) पकड़ लेते, और इधर-उधर काट खाते या नोंच डालते। सचमुच उस लाढ देश में विचरण ज करना बहुत ही दुष्कर था। (85)
____अनगार भगवान् महावीर प्राणियों के प्रति मन-वचन-काया से होने वाले दण्ड का ॥ का परित्याग और अपने शरीर के प्रति ममत्व का व्युत्सर्ग करके (विचरण करते थे), अतः HE भगवान् उस ग्राम्यजनों के कांटों के समान तीखे वचनों को (निर्जरा का हेतु समझ कर 卐 सहन) करते थे। (86)
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अहिंसा-विश्वकोश/349]