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________________ (847) जह मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं। न हणइ न हणावेइ य सममणई तेण सो समणो ॥ (129) तो समणो जइ सुमणो भावेण य जइ न होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो, समो य माणावमाणेसु ॥ (132) (अनुयो. 599) ___ जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सभी जीवों को दुःख प्रिय नहीं हैहै ऐसा समझ कर जो न स्वयं हिंसा करता है, और न ही किसी से हिंसा करवाता है, वह है 卐समत्वसम्पन्न ही सच्चा 'श्रमण/समण है। (129) , जो मन से सुमन (निर्मल मन वाला) है, संकल्प से भी कभी पापोन्मुख नहीं होता, स्वजन हो या परकीय जन, सम्मान हो अपमान, सभी स्थितियों में 'सम' रहता है, वही म समण (श्रमण) होता है। (132) $$$$$$$%s$$$頭弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱虫弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱に 1848) समया सव्वभूएसु सत्तुमित्तेसु वा जगे। पाणाइवायविरई जावजीवाए दुक्करं ॥ (उत्त. 19/26) __ भिक्षु को जगत् में शत्रु और मित्र के प्रति, यहां तक कि सभी जीवों के प्रति समभाव # रखना होता है। जीवन-पर्यन्त प्राणातिपात (जीव-वध) से निवृत्त होना भी बहुत दुष्कर है। {849) रोइय नायपुत्तवयणं, अत्तसमे मन्नेज छप्पिकाए। पंच य फासे महव्वयाई, पंचासवसंवरए जे, स भिक्खू ॥ (5) '' (दशवै. 10/525) जो ज्ञातपुत्र (श्रमण भगवान् महावीर) के वचनों में रुचि (श्रद्धा) रख कर षट्कायिक जीवों (सर्वजीवों) को आत्मवत् मानता है, जो पांच महाव्रतों का पालन करता है, जो पांच (हिंसादि) आस्रवों का संवरण (निरोध) करता है, वह सद्भिक्षु है। (5) ध E EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEELELLENESELE नगगगगनक卐EEEEE अहिंसा-विश्वकोश।343]
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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