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{837)
सव्वारं भणियत्ता जुत्ता जिणदेसिदम्मि धम्मम्मि। ण य इच्छंति ममत्तिं परिग्गहे बालमित्तम्मि॥
(मूला. 9/784) मुनि सर्व आरम्भ (हिंसा आदि) से निवृत्त हो चुके होते हैं, जिनदेशित धर्म में तत्पर होते हैं और बालमात्र परिग्रह में भी ममत्व नहीं रखते हैं।
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__जंबू! अपरिग्गहसंवुडे य समणे आरंभ-परिग्गहाओ विरए, विरए कोह-माणमाया-लोहा।
(प्रश्न. 2/5/सू.154) (श्री सुधर्मा स्वामी ने अपने प्रधान अन्तेवासी जम्बू को संबोधन करते हुए कहा-) हे जम्बू! जो मूर्छा-ममत्वभाव से रहित है, इन्द्रियसंवर तथा कषायसंवर से युक्त है एवं 卐 आरंभ (हिंसा) व परिग्रह से तथा क्रोध, मान, माया और लोभ से रहित है, वही श्रमण या '
साधु होता है।
{839) पाणे य नाइवाएजा से 'समिए' ति वुच्चई ताई। तओ से पावयं कम्मं निजाइ उदगं व थलाओ॥
(उत्त. 8/9) जो जीवों की हिंसा नहीं करता, वह साधक समित'-'सम्यक् प्रवृत्ति वाला' कहा जाता है। उससे अर्थात् उसके जीवन से पाप-कर्म वैसे ही निकल जाता है, जैसे ऊंचे स्थान - म से जल।
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[जैन संस्कृति खण्ड/340