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{787) तेसिं चेव वदाणं रक्खटुं रादिभोयणणियत्ती।
(भग. आ. 117; मूला. 4/295) अहिंसा आदि व्रतों की रक्षा के लिए रात्रि-भोजन का त्याग कहा है।
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{788} अहिंसाव्रतरक्षार्थ मूलव्रतविशुद्धये। . निशायां वर्जयेद्भुक्तिमिहामुत्र च दुःखदाम् ॥
___(उपासका. 26/325) अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए और मूलव्रतों को विशुद्ध रखने के लिए इस लोक और परलोक में दुःख देने वाले रात्रि-भोजन का त्याग कर देना चाहिए।
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{789) अहिंसाव्रतरक्षार्थ मूलव्रतविशुद्धये। नक्तं भुक्तिं चतुर्धाऽपि सदा धीरस्त्रिधा त्यजेत्॥
(सा. ध. 4/24) अहिंसाणुव्रत की रक्षा के लिए मूल गुणों को निर्मल करने के लिए धीर व्रती को मन-वचन-काय से जीवनपर्यन्त के लिए रात्रि में चारों प्रकार के भोजन का त्याग करना चाहिए।
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{790 किं वा बहुप्रलपितैरिति सिद्धं यो मनोवचनकायैः। परिहरति रात्रिभुक्तिं सततमहिंसां स पालयति॥
(पुरु. 4/98/134) __ अथवा बहुत अधिक कहने से क्या? जो पुरुष मन, वचन और काय से रात्रि-भोजन का त्याग करता है, वह निरन्तर अहिंसा का पालन करता है- यह सिद्ध हुआ।
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अहिंसा-विश्वकोश/325]