________________
{723) विषास्त्रहलयन्त्रायोहरितालादिवस्तुनः । विक्रयो जीवितघ्नस्य विषवाणिज्यमुच्यते ॥
(है. योग. 3/109) __ शृंगिक, सोमल आदि विष, तलवार आदि शस्त्र, हल, रेहट, अंकुश, कुल्हाड़ी है आदि, तथा हरताल आदि वस्तुओं के विक्रय से जीवों का घात होता है। इस कार्य को 'विष-वाणिज्य' कहते हैं।
(724)
तिलेक्षु-सर्षपैरण्डजलयन्त्रादिपीड़नम् । दलतैलस्य च कृतिर्यन्त्रपीड़ा प्रकीर्तिता ॥
(है. योग. 3/110) घाणी में पील कर तेल निकालना, कोल्हू में पील कर इक्षु-रस निकालना, सरसों, अरंड आदि का तेल यन्त्र से निकालना, जल यन्त्र-रेहट चलाना, तिलों को दल कर तेल निकालना और बेचना, ये सब यंत्रपीड़नकर्म' हैं। इन यन्त्रों द्वारा पीलने में तिल आदि में रहे 卐 हुए अनेक त्रसजीवों का वध होता है। इसलिए इस यन्त्रपीड़नकर्म का श्रावक को त्याग 卐 करना चाहिए।
阳明明明明明明明明明明明明明明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听
(725)
नासावेधोऽङ्कनं मुष्कच्छेदनं पृष्ठगालनम् । कर्ण-कम्बल-विच्छेदो निर्लाञ्छनमुदीरितम्॥
____ (है. योग. 3/111) जीव के अंगों या अवयवों का छेदन करने का धंधा करना, उस कर्म से अपनी म आजीविका चलाना 'निलांछन कर्म' कहलाता है। उसके भेद बताते हैं- बैल-भैंसे का नाक ॐ बींधना, गाय-घोड़े के निशान लगाना, उसके अण्डकोष काटना, ऊंट की पीठ गालना, गाय
आदि के कान, गलकम्बल आदि काट डालना, इसके ऐसा करने से प्रकट रूप में जीवों को # पीड़ा होती है, अतः विवेकीजन इसका त्याग करे।
जैन संस्कृति खण्ड/304