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(रात्य-अणुव्रत)
{685) हिंसा-वयणं ण वयदि कक्कस-वयणं पि जो ण भासेदि। णिट्ठर-वयणं पि तहा ण भासदे गुज्झ-वयणं पि॥ हिद-मिद-वयणं भासदि संतोस-करं तु सव्व-जीवाणं। धम्म-पयासण-वयणं अणुव्वदी होदि सो बिदिओ॥
(स्वा. कार्ति. 12/333-334) जो हिंसक वचन नहीं कहता, कठोर वचन और निष्ठर वचन नहीं कहता और न 卐 दूसरों की गुप्त बात को प्रकट करता है, जो हितकारक व मित वचन बोलता है, सब जीवों 卐 ॐ को सन्तोषकारक वचन बोलता है, और धर्म का प्रकाश करने वाला वचन बोलता है, वह के दूसरे सत्याणुव्रत का धारी है।
{686) उवसंतवयणमगिहत्थवयणमकिरियमहीलणं वयणं । एसो वाइयविणओ जहारिहो होदि कादव्वो॥
(भग. आ. 126) उपशान्त वचन, जो वचन गृहस्थों के योग्य नहीं है, आरम्भ (हिंसा) से शून्य वचन, दूसरों की अवज्ञा न करने वाला वचन बोलना -यह वाचिक विनय है जो योग्यतानुसार पालनीय होती है।
(विशिष्ट अहिंसा-आराधक श्रावक)
{687) स्थूलहिंसानृतस्तेयमैथुनग्रन्थवर्जनम् । पापभीरुतयाऽभ्यसेद् बलवीर्यानिगूहकः॥
(सा. ध. 2/16) अपने बल और वीर्य को न छिपाकर अर्थात् अपनी अन्तरंग और शरीरिक शक्ति के है 卐 अनुसार पाक्षिक श्रावक को पाप के भय से स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल मैथुन ॐऔर स्थूल परिग्रह के त्याग का अभ्यास करना चाहिए।
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अहिंसा-विश्वकोश/285)